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________________ ५५८ अध्यात्मकल्पद्रुम [प्रयोदश विवेचन-'मन साधा उसने सबकुछ साधा' इस महान नियमकी सत्यता हम चित्तदमन अधिकार में देख चुके हैं । इसीप्रकार वचन और कायाको निग्रह करनेकी आवश्यकता भी हम देख चुके हैं । इन तीनों योगोंको छोड़कर फिर लब्धिसिद्धिकी इच्छा रखना तद्दन मिथ्या है, असंभवित है, अविचारी है। ऐसे प्रसंगोमें लब्धि होने की तथा सिद्धि होने की अभिलाषा रखना व्यर्थ मनमें क्लेश उत्पन्न करना है, इसका परिणाम कुछ नहीं होता है और खेद होने से ऊलटी भात्मिक अवनति होती है । अतएव तीनों योगोंको स्वतंत्र छोड़कर सिद्धि प्राप्त करनेके व्यर्थ मनोरथ नहीं करना चाहिये । हम जानते है कि गौतमस्वामीको लब्धिये प्राप्त हुई थी।, परन्तु उनका योग वशीकरण इतना उत्तम था कि यदि वीरप्रभुपर राग नहीं होता तो वे परमज्ञान भी शिघ्र प्राप्त कर सकते । हे साधु ! योगको वशमें करनेकी परम आवश्यकता है। संसारदुःखका आत्यंतिक नाश और सिद्धि लक्ष्मीका प्रसाद उससे बहुत शिघ्र प्राप्त हो सकता है । इसको ध्यानमें रखकर योगगुप्ति निमित्त निम्न लिखित त्रण श्लोकोंको पढ़। मनोयोगपर अंकुश-मनोगुप्ति. मनोवशस्ते सुखदुःखसङ्गमो, मनोमिलेयैस्तु तदात्मकं भवेत् । प्रमादचोरिति वार्यतां मिलच्. । छीलाङ्गमित्रैरनुषञ्जयानिशम् ॥ ४२ ॥ " तुझे सुख-दुःखकी प्राप्ति होना तेरे मनके वशमें है । मन जिसके साथ मिलता है उसके साथ एकाकार-एकमेक हो जाता है। अतएव प्रमादरूप चोरके मिलनेसे तेरे मनको
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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