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________________ अध्यात्मकल्पद्रुम [ त्रयोदश त्याग करने का निर्णय करले। प्रमादजन्य सुख-मुक्तिका सुख, - शमत्र यद्विन्दुरिव प्रमादजं, परत्र यच्चाधिरिव द्युमुक्तिजम् । तयोमिथः सप्रतिपक्षता स्थिता, विशेषदृष्ट्यान्यतरद् गृहाण तत् ॥३३॥ " इस भवमें प्रमादसे जो सुख होता है वह एक बिन्दु तुल्य है, और परभवमें देवलोक और मोक्ष सम्बन्धी जो सुख होता है वह समुद्र के सदृश है, इन दोनों सुखामें परस्पर प्रतिपक्षीपन हैं, अतएव विवेकका प्रयोगकर दोनोंमेंसे एकको तू ग्रहण करले।" वंशस्थविल. विवेचन---इसका भाव उपरके श्लोकसे मिलताझुलता ही है । मद्य, विषय-कषायादिमें सुख अल्पमात्र, अल्पस्थायी और अन्तमें दुःख देनेवाला होता है; जबकि स्वर्ग तथा मोक्षका सुख अनुक्रमसे दीर्घ, अनन्त, चिरस्थायी और वास्तविक सुख है। इन दोनों सुखोंमें परस्पर विरोध है, जहां एक होता है वहां दूसरा नहीं होता । अतएव विवेकपूर्वक विचार करके प्रमाद या स्वर्ग-मोक्षके सुखको प्राप्त करनेका निश्चय कर | चारित्रनियंत्रणाका दुःख-गर्भावास श्रादिका दुःख. नियन्त्रणा या चरणेऽत्र तिर्यक स्त्रीगर्भकुम्भीनरकेषु या च। तयोमिथः सप्रतिपक्षभावाद् विशेषदृष्टयान्यतरां गृहाण ॥ ३४ ॥ १ घुमुक्तिगमिति पाठांतरं ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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