SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 646
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अधिकार] यतिशिक्षा और आत्मगुणरमणता करनेके अभ्यासकालमें कितना सहन करना पड़ता है, विशेषतया कईबार तात्कालिक लाभकी माहुति देनी पड़ती है ; इस चारित्रका जैन परिभाषामें एक अर्थ साधु. जीवन, भी होता है और उस जीवनको पालने में उपाधि याग, परिग्रहत्याग, गृहत्याग, स्वादिष्ट भोजनका त्याग, भूमिशय्या, अप्रतिबद्धविहार, केशोंका लोच श्रादि अनेक कष्टोंको सहन करने पड़ते है । ये सब बाह्य कष्ट हैं | अब दूसरी ओर नारकी तथा तिर्यचके दुःख प्रसिद्ध हैं। नारकीमें मिलनेवाले कुंभीपाक, वैतरणी आदिके दुःख और जनावरोंको मिलनेवाले . वध, बंधन, प्रहारादिके दुःखोंका अन्यत्र वर्णन करदिया गया .. है'। ये भी कष्ट है । अब चारित्र और परभवके दुःखों में पर. स्पर विरोध है, अर्थात् जहां एक होता है वहां दूसरा नहीं ठहर सकता है । जो यहां चारित्रका पालनकर अनेक प्रकारके कष्टोंको सहन करते हैं वे भविष्य भवमें मनुष्य या देवगतिको प्राप्त होते हैं, और अधिक स्थिरतावाला प्राणी तो मोक्षतकको प्राप्त करता है; जबकि यहाँपर व्यसन सेवन करनेवाले, विषयी, कपट व्यवहारवाले जीवोंको परत्र दुर्गति प्राप्त होती है । हे मुनि ! ये दो प्रकारके कष्ट हैं जिनमेंसे एक न एक प्रकारके कष्ट तो सहने ही पड़ेगें, अतएव विवेकपूर्वक विचार करके दोनों में से किसी एकको ग्रहण करले, यह हमारा कहना है। दोनों प्रकार के कष्टों से कौनसे कष्टों का अधिक जोर है, कौनसे अधिक समय तक होनेवाले हैं और कौनसे शुभराशिकी सन्ततीको उत्पन्न करते हैं-इन सब बातोंका विचारकर इन दोनों से एक वस्तुका ग्रहण कर, अथवा श्लोककी भाषामें कहा जाय तो दोनों से एक प्रकारके कष्टोंका १ आठमें-चतुर्गतिदुःखवर्णनको पढ़िये ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy