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________________ ५०८ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [प्रयोदश निर्गुणी होनेपर भी स्तुतिकी अभिलाषा रक्खे . उसका फल. हीनोऽप्यरे भाग्यगुणैर्मुधात्मन्!, वाञ्छस्तवार्चाद्यनवाप्नुर्वश्च । ईर्ण्यन् परेभ्यो लभसेऽतिताप. मिहापि याता कुगति परत्र ॥ १८ ॥ . " हे पात्मा ! तू निष्पुण्यक है फिर भी पूजा-स्तुतिकी प्रमिलाषा रखता है और उसके प्राप्त न होनेपर दूसरोंसे द्वेष करता है (जिससे ) यहां भी अत्यन्त दुखोंको सहन करता है और परभवमें कुगतिको प्राप्त करता है। " उपजाति. विवेचन-तू भाग्यहीन है, परभवमें तू ने दान आदि नहीं दिये तिसपर भी इस भवमें ख्याति प्राप्त करनेका इच्छुक है और नहीं मिलने पर दुःखी होता है; परन्तु हे भाई! यह तेरी बड़ी भारी भूल है। किसी भी वस्तुप्राप्तिकी इच्छा रखनेसे पहिले उसके योग्य बननेकी भावश्यकता है। ( First deserve and then desire ) यदि प्रतिष्ठा प्राप्त करनेकी अभिलाषा हो तो गुणवान बन, अभ्यासकर और अपना कर्तव्य पूरा कर । स्तुति ऐसी वस्तु है कि जो इसके इच्छुक होते हैं उनसे यह दूर भागती है, परन्तु जो इसको लात मारते है तथा इसके मिलनेके कारणोंको प्राप्त करते हैं उनके पास यह स्वयं आ जाती है । तात्पर्य यह है १ आत्माकी अचिन्त्य शक्ति और निर्लेपपनका स्मरण कराकर अपने स्वस्वभावमें रमणता करनेके लिये प्रतिनायकका उद्देशकर यह सम्बोधन किया गया है। . अथवा प्रतिनायकको स्वयंको उद्देशकर सम्पूर्ण ग्रन्थका अध्ययन या मनन करता हो तो उसके शुद्ध स्वरूपको उद्देशकर अपने आत्माको इस प्रकार समझा सके इसलिये यह सम्बोधन किया गया है ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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