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अध्यात्मकल्पद्रुम [प्रयोदश दूसरे किनारेपर जो मोक्षनगर है उसके साध्यविन्दुको दृष्टिमें रखकर वहाँ पहुंचने का प्रयत्न कर । मध्यमें जो भँवर, चट्टाने, पर्वत आते है उनका ध्यान रख और मनमें उत्साह रख । इस जहाजका जो साधु उपयोग नहीं करते हैं और इसको स्वत: नष्टकर बचानेके साधनको ही डूबानेका साधन बनाते है वे किसी भी प्रकारसे अपना तथा अपने आश्रितोंके कल्याणके मार्गको प्रहण नहीं करते हैं, वे तो संसारसमुद्र में भटकते रहते हैं या उसके नीचे पैदेंमें बैठ जाते हैं। निर्गुणको होनेवाला ऋण तथा उसका परिणाम. गृणासि शय्याहृतिपुस्तकोपधीन्,
सदा परेभ्यस्तपसस्त्वियं स्थितिः। तत्ते प्रमादाद्भरितात्प्रतिग्रहै
र्ऋणार्णमग्नस्य परत्र का गतिः?॥१६॥
" तू दूसरोंसे निवासस्थान ( उपाश्रय ), आहार, पुस्तक और उपधि ग्रहण करता है। इसके अधिकारी तो तपस्वी लोग ( शुद्ध चारित्रवाले ) हैं ( अर्थात् इनके ग्रहण करनेके पात्र तो तपस्वी लोग हैं ) तू उन वस्तुओं को ग्रहणकर फिरसे प्रमादके वशीभूत हो जाता है, और बहुत कर्जदार हो जाता है तो फिर परभवमें तेरी क्या गति होगी? "उपजाति. . विवेचन-प्रन्थकार कहते हैं कि हे मुनि ! तू तो तेरे कार्योंसे दुगना कर्जदार हो जाता है, एक तो चारित्र ग्रहणकरके भी प्रमादी बनता है, और शुद्ध चारित्ररहित होनेपर भी आहार प्रादि ग्रहण करता है, इसलिये तेरे गति उस कर्जदारके समान होगी जो कर्जे के कारण अपमानसे अपना सिर ऊंचा नहीं उठा सकता है।