________________
अधिकार] यतिशिक्षा
(५०१ : कथं स्वभक्तानपि तारयिष्यसि ।
प्रतारयन् स्वार्थमृजून् शिवार्थिनः, . स्वतोऽन्यतश्चैव विलुप्यसेंऽहसा ॥१५॥ ___“जब तू स्वयं प्रमादके कारण संसारसमुद्र में डूबता जाता है तो फिर तू अपने भक्तोंको किसप्रकार तैरा सकता है ? बेचारे मोक्षार्थी सरल जीवोंको तू अपने स्वार्थवश उग कर अपने और दूसरोंके द्वारा पापोंसे तु स्वयं लेपाता है।"
वंशस्थविल. विवेचन-मोक्ष प्राप्तकर संसारजालसे छुटकारा पानेकी अभिलाषा रखनेवाले सरल जीव तेरा आश्रय लेकर तेरे उपदेशानुसार आचरण करते हैं, उनको ठगकर तू ' दूसरोद्वारा' पापबंध करता है और तूनेग्रहण किये हुए पञ्चक्खाण(महाव्रत)का विषयकषायादि प्रमादके सेवनसे भंगकर तू 'स्वयंद्वारा' पाप. बंध करता है । इसप्रकार हे मुनि ! यह तो सन्देहरहित है कि तू निर्गुणी है, इससे तुझे कुछ लाभ नहीं हो सकता है । तेरे जैसे दंभी और लोकसत्कारके अर्थीको वन या अन्न देनेसे देनेवालेको लाभ होगा और उसका निमित्त तू होनेसे तुझे भी लाभ होगा, यह दांभिक विचारका परित्याग करदे । और अच्छी तरहसे समझ लेना कि ऐसे व्यवहारसे तो तू दूगना भारी हाता है, महापापपंकमें फँसता है और गर्दनमें पत्थर लटकाकर ऐसे संसारसमुद्र में डूबता जाता है कि जहाँ तू अनेकों भवों तक ऊपर नहीं उठ सकता है अपितु नीचे ही नीचे बैठता जाता है।
हे यति ! संसारसमुद्रका तैरनेका जहाज तेरे हाथ लग गया है उसको इसप्रकार अनुचित उपयोग करनेकी मूर्खताको छोड़ दे, उसका कप्तान बन, पवनकी रुखको देख और समुद्रके