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________________ ४८) अध्यात्मकल्पद्रुम [प्रयोदश... भी न मानी चाहिये और साधारण जनताकी हमारे विषयमें क्या धारणा है ऐसा तो उनके हृदयमें विचार भी नहीं होता है। यदि उनको कुछ ख्याल होता है तो वह अपने उच्च प्रकारके कर्त्तव्यका ख्याल होता है । आत्माके इस भव जौर परभवके सुखके लिये वेश और विचारकी ऐकता करनेकी खास आव. श्यकता है। ___+ + + २-६ इन पांच श्लोकोंमें बाह्याडंबर-वेश धारण करनेके लिये बहुत कुछ कहा गया है । गोरजी, श्रीपूज्य, जति और संवेगी पक्षमें भी कितने एक मात्र वेशधारी होते हैं। उसको इस बातसे बहुत कुछ समझ लेना चाहिये । डोरेधागे कर गृहकार्यादि सावध कार्यों में सलाहकार बन, दृष्टिरागवाले भगत बनाकर मुग्ध प्राणियोंको धर्मके नामसे धोखा देनेवाले, धर्मके नामपर आजीविका चलानेवाले, बालोंकी पट्टिये पाड़कर धर्मको संसारकी दृष्टिमें हलका ठहरानेवाले ऐसे मूर्खदत्त अपने आपको संसारसमुद्र में डूबोते हैं और साथ ही साथ गर्दनमें आश्रितजनों को डूबोंनेके लिये पापरूप पत्थरको बांधते हैं । इससे वे फिरसे ऊंचे नहीं उठ सकते हैं । कईबार संवेगीपक्ष जैसे शुद्ध प्रवाहमें भी कितने अनुचित दिखाव देखे जाते है, सुने जाते हैं । विशेषतया उनके शुद्ध गुरुणिजियोंके समुदायमें भी कितनी ही स्थितियोंपर ध्यान देने की आवश्यकता है । वेशसे कुछ लाभ नहीं है, लेकिन यह स्पष्ट है कि उससे संसारको धोखा देनेरूप नुकशान है । इसमें सन्देह नहीं कि वेशसे किसी समय प्राणी रोरमके मारेदिखाव के लिये अयोग्य रास्त जाते हुए भी हीचक जाते हैं । साधु-महंत-त्यागी-वैरागी जैसे भावनामय जीवनका देखाव रखनेसे ही मनुष्य महान उत्तम व्यवहारकी आशा रखते हैं और उसी स्थानपर यदि कुछ चारित्र न हो तो कितने दुःखकी बात
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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