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४८२] জন্মান্ধ
[प्रयोदश ३ तिर्यचकृत१ भयसे ( मनुष्यको देखकर यह मेरा अनर्य करेगा ऐसा विचारकर जो सामने दोड़ता है), २ द्वेषसे, ३ आहारनिमित्त ( भूख लगने पर उसका निवारण करनेके लिये शियान गृध्रादि जो उपसर्ग करते हैं ), ४ अपने बच्चोंके रक्षणनिमित्त ।
४ भात्मकृत१ वात, २ पत्ति, ३ कफ, ४ सन्निपात |
७-अठारह हजार शीलांग धारण करने चाहिये । ये अठारह हजार शीलांग क्या है ? इसके विषयमें थोड़ा किन्तु उपयोगी नोट उपमितिभवप्रपंचके पीठबन्धके भाषान्तरमेंसे यहां उद्धृत किया जाता है। तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पांच इंद्रियां, दश पृथ्वीकायारंभादिक और दश श्रमणधर्म इस प्रकार करके अठारह हज़ार शीलांग होते हैं। शीलांग अर्थात् चारित्रके अवयव (विभाग ) निम्नलिखित प्रकार है-योग तीन है-मनयोग, वचनयोग, काययोग । करण तीन है-करना, कराना और अनुमोदन करना । संज्ञा चार है-पाहारसंज्ञा, भय. संज्ञा, परिप्रहसंज्ञा और मैथुनसंज्ञा । इन्द्रिया पांच है-स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेंद्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, और श्रोत्रेन्द्रिय । पृथ्वीकायारंभादिक दश हैं-पृथ्वीकाय आरम्भ, अपकायप्रारम्भ तेउकायभारम्भ, वाउकाय आरम्भ, वनस्पतिकायमारंभ, बेइन्द्रिय आरंभ, तेइन्द्रिय भारंभ, चौरिन्द्रिय प्रारंभ, पंचेन्द्रिय भारम्भ, और अजीवभारम्भ । यतिधर्म दश है ।--क्षमा, मार्दव, भाव, निलाभपन ( मुक्ति ), तप, संयम, सत्य, शौच, अकिंचनपन और ब्रह्मचर्य । इसमेंसे प्रत्येकका एक एक पद लेकर
१ जीवकी बुद्धिसे अजीवको मारनेसे इसीप्रकार उपकरणादिककी पडिलेहण न करनेसे जो प्रारम्भ होता है वह अजीवारम्भ कहलाता है ।