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________________ अध्यात्मकल्पद्रुम [ द्वादश विचार करे और फिर आचार करे । शुभ संस्कार जागृत करने के लिये अच्छे विचारोंकी आवश्यकता है। उत्तम कृत्यों के विचारके पश्चात् उत्तम कृत्योंका होना संदेहरहित है । संयोग प्रतिकूल हो तो कदाच अमल में शिघ्र ही न लाये जा सकते हैं, फिर भी यदि विचार किया हो तो अनुक्लतासे शुभ कार्य हो सकते हैं । विचारसे संस्कार बनते हैं और अधिक कुछ नहीं तो फिर भी भविष्य भवमें तो वे संस्कार जागृत होते ही हैं। इसलिये खराब विचार कदापि न करे निरन्तर शुभ कार्योंकी भावना रक्खें । इससे अनेक प्रकार के लाभ होते हैं, व्यर्थ भावनायें नष्ट हो जाती है और मन शुभ मार्गकी ओर अग्रसर होना सिखता है । ६ परोपकारः-आत्मभोगरहित जीवन नहि है, अथोत् स्वमें सन्तोष मानकर, शरीरका लालन-पालनकर, पुत्रको खिलाकर, स्त्रीको शृंगारकर, तीजोरिये भरनेमें कुछ सार नहीं हैं । अपनी लक्ष्मी, ज्ञान तथा शक्तिका लाभ कौम, देश या जनसमूहके हितके लिये करना ही कर्तव्य है। __७ व्यवहारशुद्धिः-श्राद्धरत्नके गुण प्राप्त किये पहिले ही मार्गानुसारीके गुणों में ही यह गुण प्रथम पंक्तिका है । श्राव. करत्न तो शुद्ध व्यवहारवाला ही होना चाहिये, यह विवादरहित बात है। ऊपरोक्त सात बातोंपर विशेष ध्यान लगाना चाहिये । इनमें प्रत्येक बातपर एक एक बड़ा लेख लिखाजा सकता है, परन्तु प्रन्य-गौरवके भयसे यहां सामान्य स्वरूपका निर्देश किया गया है । यह सब शुभ विचार और शुभ वर्तन है और इनके निमित्तभूत भी हैं। शुभ विचार और वर्तनसे शुभ कर्मबन्ध होते हैं और जैसा बंध होता है वैसा ही उदय भी होता है, जिसके कारण इस भव और परभवमें मानसिक तथा शारीरिक
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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