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अथैकादशो धर्मशुद्धयुपदेशाधिकारः
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IAS ब तक इस जीवकी धर्मशुद्धि नहीं होती तब
तक वैराग्यभाव अथवा मनोनिग्रह सब निष्फल है अथवा अन्य शब्दोमें कहा जाय तो धर्म
शुद्धि बिना ये दोनों भाव प्राप्त नहिं हो सकते हैं। शुद्ध देव, गुरु और धर्मको पहचानकर आदर करना यह
आगे बढ़नेकी प्रथम सिढ़ी है और उसकी प्राप्ति निमिते यहाँ धर्मशुद्धि कैसे और किसप्रकार करनी चाहिये इसपर उपदेश किया जाता है।
धर्मशुद्धिका उपदेश. भवेद्भवापायविनाशनाय य:,
तमज्ञधर्म कलुषीकरोषि किम् ? प्रमादमानोपाधिमत्सरादिभि,
नमिश्रितं ह्यौषधमामयापहम् ॥१॥ "हे मूर्ख ! जो धर्म तेरे संसार सम्बन्धी विडंबनाका नाश करनेवाला है उस धर्मको प्रमाद, मान, माया, मत्सर भादिसे क्यों मलिन करता है ? तेरे मनमें अच्छी तरह से समझ लेना
१ यह 'यः' शब्द एक ही 'प्रते में है, इसकी खास जरूरत है.अन्यथा प्रथम चरणमें ग्यारह अक्षर होते हैं और दूसरा कारण यह है कि 'यद' शब्दसे उद्देश करके 'तद् शब्दसे निर्देश किया गया है, ईसीप्रकार प्रथममें धर्मका स्वरूप और फिर उसका कलुषीकरण बतलाया गया है अतः यहां 'य' शब्द उचित है।