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अधिकार ] . वैराग्योपदेशाधिकारः [४०७ लिये अधिकारान्त श्लोक पढ़े जावे तो उससे स्वात्मानुभव या मात्मदर्शन होनेका बहुत कुछ संभव शिघ्रतया तो नहीं होता है।
मात्माकी अनन्त शक्ति है यह अब कोई नई जाननेकी बात. नहीं है। यह स्थिी प्रगट करने निमित्त आत्मद्रव्यपर लगे हुए कर्मके समूहोंको दूर करनेकी आवश्यकता है । यह भाव प्राप्त करनेके लिये, शुद्ध आत्मदर्शन करनेकी रुची होने के लिये वैराग्यकी आवश्यकता है। कारण कि संसार और वैराग्य इन दोनोमें परस्पर विरोध है और जहाँ संसार है वहां कर्म हैं और जहाँ कर्म हैं वहां अधिक या कम आत्मदर्शनविमुखता है। संसारसे वैराग्य प्राप्त करनेके लिये शुद्ध विचारणा करनेकी तथा अपने प्रत्येक कार्यपर निरीक्षण करनेकी आवश्यकता इससे स्पष्ट सिद्ध होती है । इस अधिकारका प्रत्येक श्लोक उसी ओर प्रयाण करनेकी सूचना देता हैं ।
इति सविवरणो वैराग्योपदेशनामोऽधिकारः।।