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________________ अधिकार]. वैराग्योपदेशाधिकारः [ ३७७ रखसके ऐसी युक्ति (संचआदिसे ) करदी। निर्मित समयपर यचने दोनों गाडियों सहित उन बनियों को रत्नद्वीपमें जा रखा। जिस स्थानपर उनको रखा वहाँ बहुत सुन्दर प्रकार फैलाई हुए सुगंधीसे सुगन्धित दो सुन्दर शय्या थी। एक बणिकने विचार किया कि एक घंटा इसपर सोकर विश्राम करलें । ऐसा विचारकर उसपर सो गया और उसे निद्रा आगई । निद्रा ही निद्रामें दो पहर निकल गये। दूसरे बणिकने तो दूसरे सब काम छोड़कर रत्नोंको बटोरने लगा। उसने दो पहर तक दूसरा कोई कार्य नहीं किया। दो पहरके समाप्त होने पर देवने गाड़ियोंको उठाया और दोनोंको उनके नगरके समीप रख दिये। विचक्षण वणिकने तो एकत्रित रत्नोंसे रम्य महल बनवाये और सुखी हुआ किन्तु पहला प्रमादी तो दुःखी ही रहा और विचक्षणकी सम्पति देखकर पश्चात्ताप करने लगा। और उसका द्वेष करने लगा। उपनयः-शुद्ध देव-गुरु-धर्मकी जोगवाई यह रत्नद्वीप है, इसको महापुण्योंसे प्राप्त करनेके पश्चात् कितने ही मूर्ख तो प्रमादी वणिकके समान एशाराम तथा प्रवृत्तिमें समय बिताकर निष्फल होजाते हैं, वे उसके लिये पश्चात्ताप करते हैं। जो प्रथमसे ही सचेत होजाते हैं, वे विचक्षण वणिकके समान अप्रमत्तरूपसे धर्मक्रिया करके केवलमात्र रत्नोंका ही संग्रह करते हैं। उनका मन न तो विषयोंकी ओर दौड़ता है न कषाय की ओर दौड़ता है। वे तो साहसपूर्वक उत्तम व्यवहार, उत्तम वर्तन और दान, शील आदि धर्मअनुष्ठान करके सम्पूर्ण रात्रिदिन जगते रहते हैं और दूसरी किसी भी वस्तुको अपनी गाड़ी में नहीं रखते हैं; वे तो रत्नों
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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