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२६६ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ सप्तम त्युवेगं जनयत्यवद्यवचनं सूते विधत्ते कलिम् । कीर्ति कृन्तति दुर्मतिं वितरति व्याहन्ति पुण्योदयं, दत्ते या कुगतिं स हातुमुचितो रोषः सदोषः सताम् ।। ____क्रोध +संताप करता है, विनय धर्मका नाश करता है, मित्रताका अन्त करता है, उद्वेगी बनाता है, अवद्य वचन भाषण कराता है, क्लेश कराता है, कीर्तिका नाश कराता है, दुर्गति उत्पन्न करता है, पुण्योदयका नाश करता है और कुगतिप्रदान करता है। ऐसे ऐसे अनेकों दोष क्रोधंसे उत्पन्न होते हैं, जिसको सुज्ञ पुरुष अनुभवद्वारा समझ सकते हैं। क्रोध करनेसे हानि होना तो प्रत्यक्ष ही है। सिन्दुरप्रकर, उपाध्यायजीकी सजाय
आदि अनेक ग्रन्थों में इस विषयका बहुत विवेचन है । क्रोधका त्याग अर्थात् क्षमा-क्षमा अर्थात् जैनशास्त्र का सार; इसमें अहिंसा, अभयदान, अनुकम्पा आदि सबोंका समावेश हो जाता है । स्कन्दकाचार्य्यने क्रोधसे भवभ्रमण किया और उसके त्यागसे गजसुकुमाल, मेतार्य आदि अनेकों जीवोंने महानंद प्राप्त किया ।
मान-इसके लिये २-३-७-८-१७ वाँ श्लोक दिया गया है । यह मीठा कषाय है, सबोंसे हो जाता है, अनेकबार अपनेको निर्गुणी बतानेवाले भी अंतरंगमें अहंकार रखते हैं। कितने ही जो अहंकारी होते हैं वे भी अपने पास होनेवाली वस्तुहीके लिये होते हैं, इसको मद ( Pride ) कहते हैं, कितने
+ क्रोध और ताव ( ताप Fever ) बराबर एकसे हैं । क्रोधसे आँखे लाल हो जाती है, ताबसे भी ऐसा ही होता है; क्रोधसे मुख लाल हो जाता है, ताबसे भी जैसा ही होता है; तावसे कंठ शुष्क हो जाता है, क्रोधसे भी वैसा ही होता है; तावसे हृदय तथा नाड़ी बड़े वेगसे चलती हैं, क्रोधसे भी ऐसा ही होता है; तावसे क्षुधा नहीं लगती, क्रोधके समय अन नहीं रुचता है; आदि आदि ।