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________________ २१२] अध्यात्मकल्पग्रुम [ सप्तम दी जाती है; किन्तु यह सब किस कारण ? धनके लिये, स्थूल द्रव्य निमित्त, परन्तु मद्य, विषय, कषाय, विकथा और निद्रारूप प्रमाद चोर तेरा पुण्यधन लूंटते रहते हैं। क्या इसका भी तूने विचार किया है ? विषयकषाय ये बलवान चोर हैं और विकथा, निद्रा, नोकषाय ये पतले चोर हैं, परन्तु सब चोर एकत्र होकर तेरे गुप्त पुण्यधनके भंडारपर आक्रमण करते हैं। इस लिये जरा सचेत हो जा । धन लूट जानेके बाद यदि बोध हुआ तो वह निरर्थक है । तूं जो मूढकी भांति बैठा बैठा देखा करता है यह तेरी मूर्खता है, इसलिये उठ जागृत हो और विचार कर । थोड़ा नीचे देखकर चल-उपसंहार-औद्धत्य त्याग. मृत्योः कोऽपि न रक्षितो न जगतो, . दारिद्यमुत्रासितं। रोगस्तेन नृपादिजा न च भियो, निर्णाशिताः षोडश ॥ विध्वस्ता नरका न नापि सुखिता, धर्मेत्रिलोकी सदा। तत्को नाम गुणो मदश्च विभुता का ते स्तुतीच्छा च का ? ॥ २१ ॥ __" हे भाई ! तूंने अभीतक किसी भी प्राणीकी मरणसे रक्षा न की, तूंने जगतका कोई दलीदर दर नही किया, तूंने रोग, चोर, राजा भादिसे किये हुए सोलह मोटे भयोंका नाश नहीं किया, तूंने किसी नरकगतिका नाश नहीं किया और धर्मद्वारा तूंने किसी तीन लोकोंको सुखी नहीं किये, तब फिर तेरेमें कौनसे गुण हैं कि जिसके लिये तूं मद करता
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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