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________________ २३० ] अध्यात्म कल्पद्रुम [ सप्तम रॉको कष्ट पहुँचाते हैं वे महामोह के मित्र बन कर अपने आत्माको ही देवलोक और मोक्षके सुख से वंचित करते हैं । " ऐसे ऐसे अनेकों कारणोंसे मायाका परित्याग करना ही उत्तम है माया अन्तरका विकार है इसलिये दूसरे पुरुष उसको देखकर उसके निमित्त उपदेश या शिक्षा करे यह भी अधिकांश अशक्य है । 1 लोभनिग्रह उपदेश. सुखाय धत्से यदि लोभमात्मनो, ज्ञानादिरत्नत्रित विधेहि तत् । दुःखाय चेदत्र परत्र वा कृतिन्, परिग्रहे तद्बहिरान्तरेऽपि च ॥ १२ ॥ 66 हे पण्डित ! जो यदि तूं तेरे खुदके सुखके निमित्त जो लोभ रखता हो तो ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूप तीन रत्नों की प्राप्ति निमित्त लोभ कर और जो यदि इस भव तथा परभवमें दुःख मिलने निमित्त जो लोभ रखता हो तो श्रान्तरिक तथा बाह्य परिग्रह निमित्त लोभ कर | "" उपजाति. विवेचन - आत्मिक सुख निमित्त जो लोभ करता हो तो आत्मिक मूल गुणों को प्राप्त करने निमित्त लोभ कर । यदि बाह्य वस्तुओंके लिये ( स्थूल ) लोभ करेगा तो उससे अन्तरिक तथा बाह्य परिग्रह बढ़ेगा, जिन दोनोंसे इस भव और परभवमें निरन्तर दुःख प्राप्त होगा । इस भवमें मन चिंतामें व्याकुल रहता है और परभवमें अधोगति होती है । बाह्य परिग्रह धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु, चांदी, सोना, धातु, द्विपद और चतुष्पद ये नवविध हैं, और आन्तरिक परिग्रह मिध्यात्व ऋण वेद, हास्यादि षट्क और चार कषाय ये चौदह हैं । इन परिग्रहोंसे अनन्त दुःख होना तो स्पष्ट ही है, इसलिये यदि
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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