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________________ अधिकार ] कषायत्याग [ २२१ प्राणी ! म करीश माया लगार" इसप्रकार मायाके सचे स्वरूपको पहचान कर, उसके परित्यागके कठिन विषयपर विचार कर, उसकी ओर ध्यान दे कर, मायाका परित्याग करना चाहिये । शास्त्रकार कहते हैं कि तुम चाहे जितना धर्मकार्य क्यों न करो, परन्तु यदि तुम्हारे हृदयके अन्दर माया-कपट होगा तो तुम्हारा सब परिश्रम असफल होगा। उपाध्यायजी महाराज कहते हैं कि कुसुमपुर नामक प्राममें एक सेठके घरपर दो साधु आकर ठहरे थे। एक मुनि भोला, साधारण बुद्धिवाला, सरल, गुणग्राही और सारांशमें कहा जाय तो ' भद्रक' था, जब कि दूसरा बहुत विद्वान् था किन्तु कपटी और निन्दक था । ज्ञानीमहाराज कहते हैं कि लोग तो दूसरेकी वाह वाह करते थे, परन्तु पहला साधु तो अल्पकालमें मोक्षको प्राप्त करेगा जब कि दूसरा बहुत संसारभ्रमण करेगा । मायायुक्त ज्ञान केवल निरर्थक ही नहीं किन्तु बहुत हानिकारक भी है। शास्त्रके अन्य अनेकों विषयमें स्याद्वाद है, परन्तु माया करनेके प्रसंगो ( धर्मोपदेशादि ) के उपस्थित होनेपर निष्कपट रहना यह आज्ञा तो जैनशास्त्र में एकांत ही है । " ये वचन उपाध्यायजी महाराजके हैं। जिसप्रकार मायासे इस भवमें लाभ नहीं होता है उसीप्रकार परभवमें भी लाभ नहीं होता है । श्रीसिंदूरप्रकरमें कहा है कि: विधाय मायां विविधैरुपायैः, ___ परस्य ये वचनमाचरन्ति । ते वश्चयन्ति त्रिदिवापवर्ग, सुखान् महामोहसखाः स्वमेव ॥ " जो प्राणी अनेक प्रकारके उपायोंसे माया करके दूस.
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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