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________________ २०५ जिसको जीव सुख मान बैठा है । विषयोंसे उत्तरोत्तर भी बहुत दुःख है। इस सम्बन्धमें प्रत्येक श्लोकके साथ उपयुक्त विवेचन करदिया गया है इसलिये यहाँ पुनरावर्तन करनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है। प्रमादके विषयमें प्रथम तथा छट्ठा श्लोक है। इस सम्बन्धमें मुख्य बात यही है कि मृत्यु समीप आ रही है अतः जाग्रत हो। 'गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ।' इस प्रकार प्रमाद तथा विषयके लिये भलि भांति कहा गया है। इस समय लौकिक प्रवृत्ति ऐहिक सुखसाधन अधिक प्राप्त करनेकी ओर अप्रेसर हो रही है, इसलिये अब प्रत्येक प्राणीको कौनसा भाग लेना चाहिये इसके विचारनेकी अत्यन्त आवश्यकता है। नवीन जमानेमें शरीरभोग तृप्ति और इन्द्रियविकारों को बढ़ानेवाले बाह्योपचार और शोभाके इतने पदार्थ आते हैं और सुधार तथा फैशनके नामपर इतना अधिक कुधारा प्रचलित होगया है किं विचारशील पुरुषको अपने प्रत्येक कार्यमें सचेत रहनेकी आवश्यकता है। प्रमाद पांच हैं-- मद्य, विषय, कषाय, विकथा और निद्रा । इनमें से 'मद्य' का प्रचार इस जमाने में अनेकों निमित्तको लेकर बढ़ता जाता है । किसी भी प्रकारकी मस्त करनेवाली खुराक खाओं अथवा पिवों तो वह मद्य है। रुढार्थमें उन्हें दारु, भंग, गांजा, ताड़ी आदि समझीये । ये वस्तुयें स्वयं ही अति अधम हैं, इनके तैयार करनेमें लखों जीवोंका नाश होता है और इनके पान करनेसे मनुष्य अपनी सुधबुध खो बैठता है । अपनी सुधबुध खो देनेपर एक सामान्य पुरुषको उपयुक्त व्यव. हार प्रणालिका का भी उसमें भान नहीं होता, सदसद्विवेक दूर हट जाता है और लोकलज्जा भी भूला दी जाती है। ऐसी स्थितिमें
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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