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हिरण एक एक इन्द्रियके परवशपनेसे भी दुर्दशाको प्राप्त होते हैं तो फिर जहाँ पांचो दुष्ट इन्द्रियोंका परवशपन हो वहाँ तो क्या न हो ? चिदानन्दजी महाराज भी कहते हैं कि:एक एक आसक्त जीव एम, नानाविध दुःख पावेरे ।
विषय. पंच प्रबल वर्ते नित्य जाकों, ताको कहाँ जो कहियेरे, चिदानन्द ये वचन सुणीने, निज स्वभावमा रहियेरे, विषयवासना त्यागो चेतन, साचे मारग लागोरे ॥
इससे विदित हुआ होगा कि इन्द्रियोंसे अनेकों दुःखोंके होनेकी सम्भावना है। श्रीमद्यशोविजयजी भी इसके लिये अपने इन्द्रिय अष्टकके प्रारम्भमें ही कहते हैं कि:विभेषि यदि संसारान्मोतूप्राप्तिं च काक्षसि । तदेन्द्रियजयं कर्तुं स्फोरय स्फारपौरुषम् ।।
'यदि तुझे संसार दुःखमय प्रतीत होता हो और मोषप्राप्तिकी अभिलाषा होती हो तो इन्द्रियोंपर अंकुश लगाने निमित्त असाधारण पुरुषार्थ कर' इसप्रकार इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करने निमित्त असाधारण पराक्रमकी आवश्यक्ता है, कारण कि उनके साथ अनन्तकालका सम्बन्ध है।
दूसरी अगत्यकी बात यह है कि जीव विषयजन्य बातोंमें सुख मान बैठा है परन्तु उनमें ऐसा कोई सुख नहीं है, जैसी कि उसकी धारणा है । भर्तृहरि कहते हैं कि व्याधिको औषधि करनेमें क्या सुख है ? कंठमें तृषा लगनेपर स्वादिष्ट पानी पिया जाता है उसमें क्या सुख है ? उदर में क्षुधा लगनेपर जो खाते हैं उसमें क्या सुख है ? शरीरमें विकार होनेपर कामभोगके सेवनसे क्या सुख है ? इसी प्रकार सब व्याधियोंका हाल है।