SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७३ शरीरसाधनसे करने योग्य कर्त्तव्यकी ओर प्रेरणा. चेद्वाञ्छसीदमवितुं परलोकदुःख भीत्या ततो न कुरुषे किमु पुण्यमेव । शक्यं न रचितुमिदं हि चै दुःखभीतिः, पुण्यं विना क्षयमुपैति न वजिणोऽपि ॥३॥ “जो तूं तेरे शरीरको परलोकमें होनेवाले दुःखोंसे बचाना चाहता है तो पुण्य क्यों नहीं करता ? यह शरीर किसी भी प्रकारसे रक्षा नहीं किया जासकता; इन्द्र जैसेको भी पुण्यके बिना दुःखका भय नष्ट नहीं होता।" वसंततिलका. विवेचन: हे भाई'! यदि कदाचित् तेरेको यह भय हो कि जब मैं इस शरीरको यहाँ छोड़कर परलोक में जाउंगा तब बहुत दुःख उठाना पड़ेगा इससे यहीं अधिक जीवत रहना अधिक उत्तम है; ऐसे विचारसे यदि तुं रात्रिभोजन करके कंदमूल, अभक्ष्य, अनन्तकाय आदिका भक्षण करके जो अपने शरीरका पोषण करता हो तो यह तेरी बड़ी भारी भूल है। विशेष उत्तम मार्ग तो यह हैं कि खूब पुण्य करना, जिससे इस भवमें तेरा शरीर अच्छा रहेगा और परभवका भय नहीं रहेगा। अभी तुझे तो स्थिति अच्छी नहीं जान पड़ती है वह पुण्यकी कमी ही के कारण है, और उसी कारण से इन्द्र तथा चक्रवर्ती भी दुःखका अनुभव करते हैं । तुझे तो यह विचारना अत्यावश्यक १ किसी किसी प्रतमें यहां 'न' है और चतुर्थ पंक्तिमें 'च' है, उसका भाव भी यही होता है ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy