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इह हि मधुरगीतं नृत्यमेतद्रसायं, स्फुरति परिमलोयं स्पर्श एष स्तनानाम् । इति हतपरमार्थेरिन्द्रियैर्धाम्यमाणः, स्वहितकरणधूतः पंचभिवंचितोस्मि ।
' यह मधुर स्वर से गाया हुमा गायन, यह नाच, यह रस, यह सुगन्धी, यह स्तनस्पर्श-ये परमार्थ का नाश करनेवाली इन्द्रियाँ जो स्वहित साधने में धूर्त हैं, इन पाँचो के कारण से संसार में परिभ्रमण करता हूं और इन्हीं से वास्तव में दुःख उठाता हूं । इन पाँचों इन्द्रियों पर अथवा वस्तुतः पाँचों के विषयों पर राग-द्वेष न रखना मोक्षप्राप्ति का साधन है । मोक्षप्राप्ति का साधन राग-द्वेष का त्याग ही है कारण कि कषाय जो संसारभ्रमण का कारण है और जिसका स्वरूप पहले सातवें अधिकार में विस्तारपूर्वक बताया गया है वह सब राग-द्वेष से ही उत्पन्न होता है । अतः इन्द्रियों के क्षणिक सुख में आनन्द न मानकर, उस के त्याग से मोक्ष का अविच्छिन्न सुख होता है उसका विचार कर उसमें प्रयास करना तथा यह समता के प्राप्त करने और उसके द्वारा परंपरा के लिये व्याधि रहित सुख प्राप्त करने का परम साधन है यह जरूर ध्यान में रखना चाहिये। इसके लिये श्रीसिन्दूरप्रकर में मी कहा गया है कि-- हे साधु ! तूं चाहे जितना मौन धारण कर, घर का त्याग कर, आचार का अभ्यास कर, वन में गमन कर, तीव्र तपस्या कर, किन्तु जब तक कल्याण वन का नाश करनेवाले महावायु के समान इन्द्रियसमूह को तूंने पराजित नहीं किया तब तक राख में डाले हुए घी के समान सब वृथा समझ ।' भतः भारम्भ में ही कहा गया है कि इन्द्रियसमूह को जीतने पर ही कल्याण हो सकता