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भावार्थ-समतासुख अध्यात्म का बीज है अतः एक साधारण दृष्टान्त बताया गया है; परन्तु वास्तविक समतामुख जानने का साधन तो उसका अनुभव ही है इस लिये उसके बारे में प्रेरणा करते हुए कहते हैं कि हे भाई ! हम समतासुख का इतना अधिक वर्णन करते हैं किन्तु इससे कितना लाभ होगा है वह तुम को नहीं बता सकते । रसायण खानेवाले को परिणामरूप बहुत समय तक अनेक लाभ होते हैं किन्तु बिना खाये कहने से उस का लाभ नहीं समझ सकता, अतः तू थोड़े से समय के लिये ही समता रख । परहित का चितवन करना
और परहित के विचार में अपने स्वसुख को भूल जाना-स्वार्थस्याग करना मैत्रीभावना कहलाता है । इस का विस्तृत स्वरूप तेरहवें श्लोक में बताया गया है। इस मैत्रीभाव को तूं दूसरे जीवों पर एक क्षण के लिये ही रख । इस के परिणाम में तूं ऐसा सुपुन्य बांधेगा कि उसके योग से तुझे इस भव में और परभव में अपूर्व सुख प्राप्त होगा। अबतक तूंने पौद्गलिक सुखों का अनुभव किया है जिससे तूं उन्ही में सुख मानता है, परन्तु जब आत्मिक सुख के अनुभव करानेवाले सुकर्मों को तूं ग्रहण कर लेगा तो तुझे एक विचित्र एवं नवीन प्रकार का ही आनन्द प्राप्त होगा।
__ ग्रन्थकार यहाँ बाल अधिकारियों के मिस मैत्रीभाव से जो साम्यसुख प्राप्त होता है उस का पुन्यकर्म के साथ सम्बन्ध मिलाता है । जिससे हम दूसरों को बता सके कि समताभाव भाने से मो अपूर्व आनन्द मिलता है वह अनिर्वचनीय है । इस के परिणामरूप जो शुभ कर्मबंधन अथवा कर्मनिजग होता है उसे तो जाने दीजिये, किन्तु उस के भाने पर जो मानसिक संतोष ( Conscious Satisfaction ) होता है वह भी महान्