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अथ प्रथमः समताधिकारः भावना भाने निमित्त मन को उपदेश. चित्तबालक ! मा त्याक्षी-रजस्रं भावनौषधीः । यत्त्वां दुर्ध्यानभूता न, च्छलयन्ति छलान्विषः॥५॥
अनुष्टुप् " हे चितरूप बालक ! तूं सदैव भावनारूप औषधियों का थोड़े से समय के लिये भी परित्याग न कर जिस से छलयुत दुर्व्यानरूप भूत-पिशाच तुझे कष्ट न पहुंचा सके."
विशेषार्थ:-समतादिक अध्यात्म विषय में यह जीव अभी तक बहुत पीछे है, उसका खरा रहस्य समझ कर उस को अनुसरण करने निमित्त इस मन को बालक कहा गया है।
हे बालकमन ! तूं एक क्षणभर के लिये विचार कर, सांसारिक सगास्नेही अस्थिर हैं और पौद्गलिक विषयसुख अनित्य है । आज जो रंग है वह कल नहीं रहेगा । सगास्नेहीयों की तथा शेठ आदि स्वामी की किसी की भी वास्तविक रूप से तुझे शरण नहीं है । तेरे पर आपत्ति आने पर इनमें से कोई भी ऐसा न मिलेगा जो तेरा उपकार कर सके, अपितु जैसे ये सब मिले हैं वैसे ही इन को अलग होते देर न लगेगी । तूं स्वयं तो अकेला ही पाया है और अकेला ही जायगा । तूं किसी को नहीं है और तेरा कोई नहीं है । इस प्रकार अनेक तरह संसार का वास्तविक रूफ क्या है इसका विचार करना, अपनी शुभ और अशुभ दशा क्या है उस का स्वरूप समझ कर उसको स्मरण रखना-पौद्गलिक एवं आत्मिक तत्वों में