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________________ अलग रक्खा था; क्योंकि विषय नितान्त पारिभाषिक होनेसे केवल साहित्यके अभ्यासी और शोकीनको ही आनन्द पहुंचानेवाला है, परन्तु अनेकों अनिवार्य कारणोंसे यह कार्य जैसा चाहिये उस रूपमें तैयार नहीं हो सका इसलिये नहीं लिखा गया। अध्यात्मिक शान्तिके प्रसारद्वारा जीवनको विशुद्धतर और उन्नत बनानेकी प्रकृष्ट अभिलाषासे ग्रन्थलेखन और उसका विवेचन किया गया है अतएव इस अभिलाषाकी पूर्ती होनेकी अन्तःकरणसे प्रार्थना है। अस्तु। यावदेहमिदं गदैर्न मृदितं नो वा जराजर्जर । यावत्वक्षकदम्बकं स्वविषयज्ञानावगाहक्षमम् ॥ यावच्चायुरभङ्गुरं निजहिते तावबुधैर्यत्यतां । कासारे स्फुटिते जले प्रचलिते पालिः कथं बध्यते ॥ 'जबतक शरीर रोगसे मुर्दा नही हुश्रा है अथवा वृद्धावस्थासे जर्जरित नहीं हुआ है, जबतक पांचों इन्द्रिय अपने अपने विषयोंको समझनेमें समर्थ हैं और जबतक आयुष्य क्षय नहीं हुआ है तबतक हे जीव ! तू तेरे कल्याणके लिये भरसक प्रयास कर, क्योंकि जब सरोवर तूर कर पानी तेजोसे उसके बाहर बह निकलेगा तो फिर पालका बांधना बडा कठिन होगा ! ......... शान्तसुधारस. भवारण्यं मुक्त्वा यदि जिगमिषुर्मुक्तिनगरी, तदानीं मा कार्षीविषयविषवृक्षेषु वसतिम् । यतश्छायाप्येषां प्रथयति महामोहमचिरा दयं जन्तुर्यस्मात्पदमपि न गन्तुं प्रभवति ॥ यदि तेरी अभिलाषा इस संसाररूप अरण्यका त्याग कर मोननगरीके प्राप्त करने की हो तो विषयरूप विषवृक्षकी छायामें अपना घर न बनावे क्योंकि इसकी छाया हो अनन्त कालतक महामोहको उत्पन्न करनेवाली है कि जिससे बच कर प्राणी एक कदम भी दूर .हठनेको असमर्थ है। शृङ्गारवैराग्यतरंगिणी
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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