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षष्टिशतक प्रकरण
[मे] सापिं दीठइँ लोक नासइ । तेहनइं लोक पणि काई न कहई जि - विरूअउं कीधउं ।' जे कुगुरुरूपीउ साप छांडई त्यजई।
हा इसिइ खेदि। मूढ मूर्ख केतलाइ इम कहइ, 'ए दुष्ट ईणइं विरूअउं कीधउँ' ॥३६॥
। [सो.] साप पाहइं कुगुरु अधिकउ । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] सापई य पाहिइं कुगुरु दुष्ट । इसिउं देखालइ छइ । सप्पो इक्कं मरणं कुगुरु अणंताई देइ मरणाई । तो वर सप्पं गहिअं मा कुगुरुसेवणं भद्द ॥ ३७॥
[सो.] सप्पो० साप डसइतउ एक जि वार मरण दिइ । ३०कुगुरु० भ्रष्टाचारी गुरु अनेक कुमार्ग प्ररूपतउ सेवक रहइ अनंता मरणं दिइं। घणउ संसार वधारइं । तो वर० तेह भणी अहो भंद्र ! उत्तम साप लीधउ सूडउ । मा कुगुरु० पुणे कुगुरुनउं सेंविवउं रूडूं नहीं ॥ ३७॥
[जि.] सर्प इकं एक मरण दिइ सेविउ हूंतउ । कुगुरु उंसेविउ हूंतउ अणंतां घणां मरण दिइं । तो तेणि कारणि सापनउँ लेवउं रूडउँ । पुण कुगुरुनउं सेविवउं रूडउं नही, हे भद्र ! हे सुज्ञ ! ॥ ३७॥
[म.] साँपु कुपिउ हूंतउ एक वार मरण दिइ अनइ कुगुरु सेविउ अनंता मरण दिइ । तेह भणी साप झालिउ, ग्रहिउ भलउ । हे भद्र ! कुगुरुनउं सेविवउं रूडउं नहीं ॥ ३७॥
४० [सो.] एहा कुगुरु जीव छांडइ नहीं । किसिउं कीजइ । ए वात कहइ छ।।
१ जि. वरि,
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