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[ सो.] इक्को वि० एकइ थोडउ लगारइ ए वातनउ संदेह नथी, जं जिनधर्मिईं करी मोक्षसुख छ । जीवदयामूल जिनधर्म 5 आराधतां मोक्षसुख लाभइ जि । ए वातनउ वरांसउ नथीइ जि । तं पुण० ते जिनधर्म दुविणे० जाणतां दोहिलउ । कहिहूइ ? अइउक्क० अतिउत्कट गाढा मोटा पुण्य भाग्यरहित कदाही उन्मार्ग वांकी बुद्धिना धणी जीवहूई । अति गाढा भाग्यवंत जीवहूइं मार्गानु - सारिणी बुद्धिना धणीहूइं जाणतां सोहिलउ जि छइ ॥ १५ ॥
षष्टिशतक प्रकरण
इक्को वि न संदेहो जं जिणधम्मेण अस्थि मुक्खसुहं । तं पुण दुब्विण्णेयं अइउक्कडपुण्णरहियाणं ॥ १५ ॥
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[ जि. ] जउ जिनधम्मि करी मोक्षनउ सुख छइ । अथ नथी इस संदेह कई नही। किंतु निःसंदेह मोक्षसुख छइ । नैयायिकवैशेषिकादिकने मते मोक्षि सुख नथी । आत्यन्तिकी दुःखनिवृत्तिर्मोक्ष: । इस्या मोक्षलक्षणना कहिवातउ दुःखानुषंगिपणातउ सुखई दुःख । तेह दुःखस्वरूपनउ उच्छेद अत्यंत अभाव मोक्ष । इस्या सांभलव संदेह । पुंण संदेह न करिवउ । किमु । जउ मोक्षसुख न हुई तउ कोई जाण बांछइ नही । जिम करणंक । तिणि कारणि मोक्ष सहू वांछइ । तर सही मोक्षि सुख छइ । इसिह अनुमानि करी मोक्षसुख छइ । तथागमे प्रोक्तं
न जरा जन्म नो यत्र न मृत्युर्न च बन्धनम् । न देहो नैव च स्नेहो नास्ति कर्मलवोऽपि च ॥ केवलं केवलं यत्र यत्र दर्शनमक्षयम् ।
अक्षयं च सुखं यत्र वीर्यं सम्यक्त्वमक्षयम् ॥
तं पुण० तें पुण मोक्षसुख अतिउत्कृष्ट पुण्यरहित पुरुषे दुविष्णेयं दुर्ज्ञेय जाणतां दुहिउं ॥ १५॥
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