________________
· षष्टिशतक प्रकरण
इत्तियं एतलउं न सक्कई जउ माहरउ एकु जि अरहंत देव । बीजउ नही। इणि कारणि सम्यक्त्व पालतां सुहेलउं ॥२॥
[मे.] अहो जीव ! जउ तउं वरसी छमासी प्रमुख तपु करी न सकइं । कालनइ अनुसारि सूधउं चारित्र पाली न सकइं । सिद्धांत5 प्रकरणप्रमुख पाठ जउ पढी न सकइं। जइ तउं आगम गुणी न सकइं । दान सुपात्र विषइ देइ न सकई । तउ तउं एतूंअइ करी न सकइ जि देवु तउ एक अरिहंतइ जि । बीजा हरिहरादिक नहीं ॥२॥
[सो.] को कहिसिइ इहलोकनां सुखनइ काजि बीजा देव आराधीइं छइं । तेह आश्री कहइ छ । 10 [जि.] इसुं कही जिनधर्मना करणहारहूई गुण कहइ छइ ।
[मे.] कांइ ते कहइ। रे जीव ! भवदुहाई इकं चिअ हरइ जिणमयं धम्मं । इयराणं पणनंतो सुहकले मूढ ! मुसिओ स्थित ॥३॥
[लो.] रे जीव ! जिन वीतरागनउ धर्म एकलउ जि एकाग्रI5मनि आराधीतउ हुंतउ भवसंसारनां दुःख फेडइ। सर्व सुख करई निश्चइं । इयराणं इहलोकनां सुखनइं काजिइं इतर देव रागद्वेषाद्याक्रान्त क्षेत्रपाल वाराही प्रमुखहूई नमतउ अनेक उपायनां मानतउ रे मृढ ! मूर्ख ! मुसीअं छ। तेहे कर्म ऊपहरउं कांई कराइ नहीं। मुहियां धर्म चूक छअं ॥३॥ 20 [जि.] रे जीव ! एकु जि जिनमत जिनभाषित धर्म भवदुहाई संसारनां दुःख हरइ स्फेडइ ! तिणि कारणि हे मूढ ! .
१ रागद्वेषाद्याक्रान्ता. २ अनेक नउयाना. ३ छअं मुहिआं. ४ चूकउं.