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त्रण बोलावबोध सहित
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जह जिम पहुसामग्गि जैन सामग्री तेहनई सँयोगि हूंतइ अम्हा रहई सम्यक्त्व सुलभ हुइ ॥ १६० ॥
[मे.] इसिउं विमासीनइ हे सुगुरु ! अम्हारउं स्वामीपणउं तिम करउ, जिम स्वामीनी सामग्रीनइ जोगिइं अम्हारडं मनुष्यपणउं सफल सुलभ थाइ ॥१६०॥
[जि.] अथ श्रीनेमिचंद्र भंडारी स्वनामांकित गाथा कहइ। एवं भंडारिअनेमिचंदरइयाओ कइवि' गाहाओ। विहिमग्गरया भव्वा पर्दतु जाणंतु जंतु सिवं ॥१६१ ।।
[सो.] एवं० इम इसी रहिई नेमिचंद्र भंडारी-रची कीधीं ए केतलीइ १६० गाथा जे भव्य जीव खरों विधिमार्गनइ विषई तत्पर:० छंइं ते ए पढउ । एहनु अर्थ जाणउ । सम्यग् आराधीनइ मोक्षपदि जाउ । अनंतं सुख लहउ ॥ १६१॥
[जि.] एवं इणि प्रकारि भांडागारिक श्रीनेमिचंद्रई रचित कीधी केतलीएक गाथा विधिमार्गरतं भव्य जीवं पंढउं । तेंह गाथानउ अर्थ जाणउ । किम शिव मोक्षि निरुपद्रवि स्थानकि जंतु जाउ । भणहार जाणहार पुरुषहूई महापुण्यफलप्राप्ति हुई ॥ १६१ ॥
[मे.] इसी परिइं भंडारी श्रीनेमिचंद्रिई केतलीएक गाथा रची । अनइ जे विधिमार्ग खरी विधि तेहनइ विषइ रत में भव्यं जीव छइं ते ए पढउ । एहनउं अर्थ जाणउ । अनई आराधतां भणता जाणता शिवपद पामउ । अनंत सुख लहउँ ॥ १६१ ॥
[सो.] इति षष्टिशतकबालावबोध : समाप्तो विरचितः श्रीसोमसुन्दरसूरिपादैः सर्वजनोपकाराय ।
१ जि. में. कहवि. २ रहणई. ३ 'ते' नथी. ४ सो. नी बीजी प्रतमा मात्र आटली ज पुष्पिका छे-" इति षष्टिशतकबालावबोध समाप्ता॥ छ । श्रीः ॥ गंथान १०९६ श्लोकाः ॥ श्री। श्री। छ।”
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