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षष्टिशतक प्रकरण ।
[जि०] जइवि यद्यपि हु निश्चई उत्तमसावयपयडीए सुजाण श्रावकनइ पावडियालइ हूंतउ चरणकरणि चारित्रपालननइ विषइ असमर्थ, दीक्षा पाली न सकउं तह वि तथापिहिं मज्झ हिअअम्मि माहरा हियामाहे प्रभुवचन करिवानइ विषइ यतिधर्म 5 पालिवानइ विषइ मनोरथ होज्यो ॥ १५६ ॥
[मे०] जउ किमइ उत्तम श्रावकनी पगथीइं चडिवानइ विषई असमर्थ छउं, पणि तउ ही प्रभु वीतराग तेहना वचननउं करिवउं तेहनइ विषइ मनोरथ माहरइ हियइ छइ ॥ १५६ ॥
ता पहु पणमिअ चलणे इक्कं पत्थेमि परमभावेणं । "तुह वयणरयणगहणे अइलोहो मज्झ हुज सया॥१५७॥ . [सो.] ता पहु० तेह भणी प्रभु परमेश्वर वीतरागनां चलण नमस्करीनइ एक वानउं प्रार्थडे मागउं साचइं भाविइं। तुह० हे स्वामी ! ताहरां वचन रूपियां रत्न लेवानइ विषइ मूहरई सदैव
अतिलोभ हुज्यो। श्रीसिद्धांतवचन उपरि आस्था आदर आवियो । 15एतलइ काज सरइंसिं ॥ १५७ ॥
[जि.] ता तउ पछइ पहु प्रभु जिन तेहना प्रणमित नमस्करिया चरण पदकमलि जिणइं मइं एतावता प्रभु तणा चरणकमल नमस्करी प्रभु कन्हां परम भावि मोटी भक्तिइं करी एक वस्तु प्रार्थउं । हे प्रभो ! ताहरां वचनरूपिया रत्न तेह लेवा सर्वदैव मूहूई अतिलोभ ०होज हुउ ॥ १५७॥ " [मे.] तउ तेह भणी प्रभु वीतरागना चरण नमीनइ परम भावि करीनइ एक वायूँ मागउं । ताहरा वचनरूपीयां रत्न लेवानइ विषइ मरहइं सदैव अतिलोभ हुज्यउ ॥ १५७ ॥
१ पित्थेमि. २ जि. होज. ३ चरण. ४ सरिसिइ.