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षष्टिशतक प्रकरण
साहम्मिआओ अहिओ बंधुसुआईस' जाण अणुराओ । तेसिं न हु सम्मत्तं विनेयं समयनीईए ॥ १४७ ॥
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[सो.] साहम्मि० जेहहूई साहम्मी" पाहिं बांधव पुत्र कलत्र मित्रादिक स्वजन ऊपरि अनुराग घणउ अधिकउ हुई । साम्मी उपरि 5 स्नेह थोडउ अनइ आपणां सगा कुटुंब ऊपरि घणउ स्नेह हुइ, मोह लगइ । तेसिं० सिद्धांतनी रीतिइं जोतां निश्चयइं" तेहहूइं सम्यक्त्व नथी इसिउं मानउं । जउ सम्यक्त्व दृढ हुइ तर धर्मवंत ऊपर अनुराग गाउ जोईइ । इह लोकना सगपण ऊपरि थोडउ जोईइ । इसिउ
भाव ॥ १४७ ॥
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[ जि. ] जेहां पुरुषहूई साहम्मी पाहई बंधु स्वजनादिक ऊपरि अधिकउ - अनुराग स्नेह हुइ तेहं पुरुषहूई सम्यक्त्व नही । इस सिद्धांतनी नीति विन्नेयं जाणिवउं ॥ १४७ ॥
[.] जेह जीवनई साधर्मी पांहति बांधव पुत्र कलत्र मित्र ऊपरि अधिक अनुराग हुइ ते जीवन सिद्धांतनी रीतिइं जोतां सम्यक्त्व नथी । Ashis ? जुसम्यक्त्वदृढ हुइ तउ साहम्मीनउ अनुराग गाढ हुई || १४७ ॥
[ सो.] शुद्ध सम्यक्त्वनउ धणी लोकाचारनउ धर्म कांई न गणइ । ए बात कहइ छइ ।
[ जि.] अथ मिथ्यात्त्वीनइ पक्षि हूउ जि मानइ तिहहूइं ओलंभउ दिइ ।
* जर जाणसि जिणणाहो लोआयारा विपक्खए हूओ । ता तं तं मन्नतो कह मन्नसि लोअआयारं ॥ १४८ ॥
१ जि. मे. साईसु. २ मन्ने ३ सिद्धंतनीईए. ४ साहम्म. ५ निश्चयनइं ६ जि. मे.. लोआयाराण पक्खए. ७ में. ता तव तं. ८ मे. 'आयारे.