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षष्टिशतक प्रकरण
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[जि.] अथ जिनेन्द्रनइ वचनि जिनधर्म जाणिवानउं फल कहइ। जम्हा जिणेहिं भणिअं सुअववहारं विसोहयंतस्स। जायइ विसुद्धबोही जिणआणाराहगत्ताओ ॥१३८॥
[सो.] जम्हा० जेह भणी जिन श्रीसर्वज्ञइ इम कहिउँ छइ । श्रुतव्यवहार सिद्धांतनउ मार्ग जोईनइ देवगुरुधर्म लिइं, जायइ० तु विशुद्ध बोधि निर्मल सम्यक्त्वनी प्राप्ति हुइ। जिण० जिननी आज्ञाना आराधक भणी । यदुक्तं श्रीआवश्यक सामाचार्या
निच्छयओ दुन्नेअं को भावे कम्मि वट्टए समणो । ववहारओ उ कीरइ जो पुवट्ठिउ चरित्तम्मि ॥ ववहारो वि हु बलवं जं छउमत्थं पि वंदई अरहा ।
जा होइ अणाभिन्नो जाणतो धम्मयं एयं ॥ (गा. ७१६-७१७) सिद्धांतनउ व्यवहार प्रमाण करतउ केवलइं जे छद्मस्थि सिद्धांतनइ "व्यवहारि जोई चाही खरउ निर्दोष भणी आणिउ हुइ. पुण ते आहार 15छइ आधाकर्मी । तउ ते जिमइ । केवली इम न कहइ, 'ए आधाकर्मी छइ' । इम कहितां सिद्धांतना व्यवहार ऊपरि अनास्था थाइ । तेह भणी न कहइ ॥ १३८॥
[जि.] जम्हा यस्मात् जिणि कारणि जिने इसुं कहिउं । सुअववहारं श्रुतव्यवहार सिद्धांतनी स्थिति विशोधता समाचरता २०पुरुषहूई विशुद्ध निर्मली बोधि जिनसम्यक्त्वप्राप्ति जायइ हुइ । किसा हेतुइतउ ? जिनाज्ञाराधकत्त्वात् । जिननी आज्ञानउ आराधकपणातउ । कोई जिनाज्ञाप्रतिपालक पुरुष देषी बोधिफल प्रतिइं संदेह करइ । तेह पुरुष प्रतिई जिणआणाराहगत्ताओ इसुं पद हेतुरूप थाइ ।
१ मे. विसोहियंतस्स. २ मे. राहगुत्ताओ.