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षष्टिशतक प्रकरण
[मे० ] तथापि हि आपणी जडता मूर्खाई तिणि करी अनइ कर्मनउं गुरु भारीपणउं तिणि करी वेसास न करिवउं । पणि ते धन्य कृतार्थ जेह रहई पुण्यनइ योगि सूधउ गुरु मिलइ ॥ १३५ ॥
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[ जि० ] इणी जि कारणि सुगुरुप्राप्ति दुर्लभ कहइ ।
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अहयं पुणो अन्नो ता जइ पत्तो अह न पत्तो य । तह विहु सो मह सरणं संपइ सो जुगप्पहाणं' गुरू ॥१३६॥
[ सो०] अहयं ० हुं पुण अपुण्य अभागीउ छउं । ता जइ० तु जइमई गुरु प्रामिउ छइ अथवा नथी प्रामिउ, तउ नश्चिई मू रहइ तेह जि प्रमाण ॥ १३६॥
[ जि० ] श्रीनेमिचंद्र भंडारी गामि गामि नगरि नगरि गुरुपरीक्षा करत हूंतउ फिरइ, पुण सुगुरु न लहई । तिवारइं सुं कहइ ? अहयं पुणो अहनो० । अहयं हउं पुण अधन्यपुण्य छउं । ता तउ पछइ जइ किमइ सुगुरु पामि तउ पामि । अह न पत्तो य अथवा न पामिउ । तह वि तथापि तउही हु निश्वई मह
सो तेह जि सुगुरु शरण आराध्यपणइ आधार । जे गुरु संप्रति हिवडानइ कालि जुगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरि युगप्रधान गुरुना पग शरण । इति भावः ॥ १३६ ॥
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[मे० ] हउं तउ अकृतपुण्णीयउ । जउ मई ते सूधउ गुरु पामिउ छइ अथवा नहि पामिउ । तथापि जे युगप्रधान गुरु छइ ते ... मुझनई शरणि ॥ १३६ ॥
१ जि. जुगपहाण, मे. जुगुपहाण. २ निश्वई.