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षष्टिशतक प्रकरण
[मे.] वीतरागना धर्मनउं करिवउं दूरि रहउ । क्रियानउं साधिवउं दूरि रहउ । तिम शासननी प्रभावना पणि दूरि रहउ । एक जे जिनधर्मनउं सद्दहिवउं ते तीक्ष्ण गाढा पोतना पाप थकी जे दुक्ख तेहनइं नींठवइं ॥ १२७॥
5 [सो.] धर्म साभलिवाना मनोरथ कहइ छइ ।
[जि.] अथ सुश्रावकनी धर्मचिन्ता कहइ । कइया होहि दिवसो जइया सुगुरूण पायमूलम्मि । उस्सुत्तलेसविसलवरहिओ निसुणेमि जिणधम्मं ॥१२८॥
[सो.] कइया. ते दिहाडउ मझहूई कहिइं हुसिइ, जहीइं 1०हुं उत्तम चारित्रिया सुगुरुनइ पदमूलि उत्सूत्रलेश लगारइ उत्सूत्ररूपिउ विषलव विसनउ लेस तीणं करी रहित खरउ श्रीजिनधर्म सांभलिसु ? जेह भणी जिनवचननइं सांभलिवइं जीवहूई मोटउ गुण ऊपजइ । यत उक्तं
नवि तं करेइ देहो न य सयणा नेव वित्तसंघाओ । जिणवयणसवणजणिया जं संवेगाइया लोए ॥ १२८॥ [जि.] कइया कदा किवारई दिवसो दिहाडउ होहि होसिइ, जइया यदा जिवारइं सद्गुरुनइ पादमूलि चरणकमलि जिनधर्म निसुणिसु सांभलिसु ? किसुउ हूंतउ ? उत्सूत्रनउ लेस तेह रूपिउ विषलव तिणि करी रहित हूंतउ । एतलइ ते दिहाडउ किहीइं २०होसिइ ? जिणि दिहाडइ गुरुनइ पदकमलसमीपि जिनधर्म सांभलिसु ते दिन कृतार्थ ॥ १२८॥
१ °रिहिउं. २ निसुणेसु, जि. निसुणेमु, मे. निसुणेसु.