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षष्टिशतक प्रकरण
मिच्छत्त० ये निबिड मिथ्यात्त्वि करी मोह्या वाह्या छई तेहहूई साचउ धर्म सांभलिउ दीठउ' हर्ष न करई। तेहहूई मननी रति मिथ्यात्त्वधर्मइ जि ऊपरि हुइ । ते आपणा आपणा कर्मनउ विशेष । ते अभव्य दूरभव्य तीहनुं कारण ॥११३॥ 5 [जि.] केईएक धन्यहूई सुद्ध निर्मल धर्म कथितमात्र हूंतउ
आणंद जणइ ऊपजावइ । अनइं अधन्यहूई मिथ्यात्त्वई मोहित हूंता मिथ्यात्त्वधर्मनइ विषइ रति संतोष हुइ ॥ ११३॥
[मे.] कहिउंइ हूंतउ सूधउ धर्म केतलाई भाग्यवंतनइं आणंद ऊपजावइ अनइ मिथ्यात्त्वमोहित जीवनइं मिथ्यात्त्वधर्मनइ विषइ 1०रति हुइ ॥ ११३॥
[सो.] केतलाइ जीव धर्मनी बुद्धिई पाप करइं छइं । ते आश्री कहइ छइ।
[जि.] अथ जिनधर्मीनउं स्वरूप बिहुं गाथाई करी कहइ । : इक पि महादुक्खं जिणसमयविऊण सुद्धहिययाणं । 15 जं मूढा पावाई धम्मं भणिऊण सेवंति ॥११४॥
[सो.] इकं पि० जिनवचनना जाण निर्मल मनना धणी तेहनइ मनि एह जि एक महादुःख, जं मूढा० जं मूढ मूर्ख बापडा मिथ्यात्वी धर्म भणी' धर्मनी बुद्धिइं पाप सेवइं । यागादिक करई । पापइ पुण्य भणी मानइं । एव्हउं असमंजस देखी जिनधर्मना जाणनई २०मनि असमाधि ऊपजइं ॥ ११४ ॥ . [जि] निर्मलहृदय अनइ जिनसिद्धांतना जाण तेहांहूई एकू ज मोटउं दुक्खं जे मूढा मिथ्यात्त्वी धर्म भणी धर्मबुद्धिइं पापहिंसादिक
१ दीठउइ, २ करण. ३. 'धर्म भणी' नथी. ४ जाणइनइ.