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त्रणं बालावबोध सहित
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रहित धनि करी सहितइ हूंता ति दालिद्री जि जाणिवा । काई ? मिथ्यात्वनइ प्रमाणि संसारमाहि रुलिस्यइं ॥ ८८ ॥
[सो.] जिनधर्मना जाण लक्ष्मीइ पाहि धर्म अधिकउ देखइं । ए वात कहइ छ।।
[जि.] अथ श्रीवीतरागनी पूजा साची वर्णवइ । जिणपूअणपत्थावे जइ को सड्ढाण देइ धणकोडिं। मुत्तूण तं असारं सारं विरयंति जिणपूअं ॥८९॥ .
[सो.] जिणपूअण० गाढा धर्मना जाण श्रावकहूई चउमास पजूसणादिक पर्व आविइ जिन वीतरागनी पूजा स्नात्र पडिकमण पोसहादिकनइ प्रस्तावि अवसरि जइ को धन द्रव्यनी कोडि दिइ, इमा कहइ 'ए मूकीनइ अमकइ थानकि आवि, अमुकउं व्यवसायादिक काज करी तूहूई लक्ष्मीनी कोडिनउ लाभ हुस्यइ ।' मुत्तूण तउ ते जाण श्रावक ते द्रव्य असार जाणता मूंकीनइ सार जिनपूजाइ जि करइं । जिनधर्मइ जि आराधई । इसिउं जाणइं 'ईणं द्रव्यई एकइ भव सुखिया थइसिइं । अथवा नहीं थईई। पुण वीतरागनी पूजाइ.5 जिनधर्म आराधतां निश्चइं आगलि अनंत सुख लामिसिइं जि' ॥ ८९ ॥
[जि.] जइ कोईएक जिनपूजननइ प्रस्तावि श्रीवीतरागदेवपूजानी वेलाई श्रावकहूई धननी कोटि दिइं, तं असारं निःसार ते धननी कोडि मेल्ही सार प्रधान अनंती धननी कोटि देणहारि जिनपूजा विरचई करई ॥ ८९॥
20 [मे.] जिन वीतरागनी पूजानइ अधिकारि जे कोइ श्रावकनइं धननी कोडि दिइ अनेक लाभ दिषाडइ, पणि ते श्रावक असार धन ·
१ जि. मे. कुवि. २ थईए.