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८६.
- षष्टिशतक प्रकरण
तेउ पापी लोक ते बोलई नही । विग्घलवम्मि० अनइ जे दृढ धर्म खरा धर्मनां कर्त्तव्य करइ छइं तेहहूई केती वारइं विघ्नलवलेश मात्र थो अइ अंतराय दुःख पडइ तउ मूर्ख लोक नाचई, 'एहहूई धर्म करतां आम हूउं ।' इसिउं न जाणइं, 'निश्चिइ धर्म करतां रूडूं जि 5 हुइ ।' धर्मइं विघ्न विलइ जाइं जिम आगि पाणी करी उल्हाइ जि । पुण मापु जाणिवउं । जु थोडउ अंगारमात्र आगि हुइ तु चलूइ मात्रि पाणीइं ओल्हाई। पणि दवानल ज्वलतउ हुइ तउ थोडइं पाणी कांई नही । जु मेघ वरिसइ घणउं पाणी पडइ तउ ओल्हाइ। तिम थोडउं पाछिला भवनुं पापकर्म थोडिइ धर्मिइ विलइ जाइ। पुण कर्म घणउ हुइ 10अनइ धर्म थोडउ हुइ तु किम तीणइं धर्मिइं घणउं कर्म विलइ जाइ ? पुण एक निश्चय जि जाणिवू । जं धर्मि करी पाप विलइ जाइ जि । जिम सूर्य थिकउ अंधारां नासइ जि । जं धर्म करतांइं विघ्न नथी टलतां ते थोडा धर्मनुं कारण । एक मूर्ख अजाणपणइं 'धर्मनइं दोषिई' इसिउं कहई, ‘अम्हारइ कुलि ए धर्म सहइ नही ।' अनइ पापीहूई घणाई Iऽदुःख पडइं पणि बोलई नहीं ॥ ८४ ॥
. [जि.] पावा पापिष्ट पुरुष मिथ्यात्त्वसेवकहांहूई विघ्न उपद्रव तेहनां शतई पड्यां नो चिंति न बोलई । पुण दृढ धर्म निश्चल धर्मवंतहूई विघ्ननइ लवलेशिइ पडिइ हूंतइ पणचंति प्रनृत्यति ॥ ८४ ॥
[मे.] मिथ्यात्वना सेवणहारनइ विघ्ननां सई ऊपजइं पणि ते २०पापीइ मन नाणइ जि 'अम्हनइ मिथ्यात्त्व सेवतां विघ्न ऊपनां ।' अनइ
जे दृधर्म खरउ धर्म करइ तेहनइ विघ्ननउ लवु मात्र ऊपनई पापी लोक पचारइं ॥ ८४ ॥
१ धम्मिइं. २ कर. ३ उल्हाइ. ४ तउ जि. ५ उल्हाइ. ६ थकउ.