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षष्टिशतक प्रकरण .
तिम जि मिथ्यात्त्वनइ उदइ जिनदेव श्रीसर्वज्ञदेव न नियंति न पश्यन्ति न देखइं । सकललोकप्रत्यक्ष सूर्य सरीषउ सर्वज्ञदेव । अनइ वादलसरीषउं मिथ्यात्त्व छइ । तिणि कारणि मिथ्यात्त्वव्यापिउ जीव
श्रीसर्वज्ञदेव सकल आराध्यपणइं न देखइं ॥ ८०॥ । 5 [मे.] जिम वादलइ करी सूर्य पृथ्वीमंडलमाहि प्रगट जाणीतउ हूंतउ पणि दीसइ नहीं तिम मिथ्यात्त्वरूपीइ वादलि आडइ हूंतइ जिन वीतरागदेव न देषइं ॥ ८०॥
" [सो.] मिथ्यात्त्वीनउ जन्म वृथा । ए बात कहइ छइ ।
[जि] अथ मिथ्यात्त्वीना जन्मनी निरर्थकता कहइ । 10किं सो विजणणिजाओ जाओ जणणीइ किंगओवुडिं
जइ मिच्छरओ जाओ गुणेनु तह मच्छरं वहइ ॥ ८१॥ - [सो.] कि सो ते पुरुष माइ कां जाइउ ? अथवा जु जाइउ तउ वृद्धिइं कां गिउ ? जइ० जउ मिथ्यात्त्वरत कूडा देवगुरु धर्मनइ विषइ आस्थावंत हुउ । अनइ गुणवंत साचा धर्मना आराधक इतेह ऊपरि वली मच्छर वहइ । एतलई तेहनउ जन्म निरर्थक । मुहिआं पृथ्वी रहइं भारइ जि करण्हार । तेहनी वृद्धिविस्तार सहूइ अकज इसिउ भाव ॥ ८१॥ ' [जि.] ते पुरुष कांई जणणिजाओ माताई जणिउ ? जउ माताई जन्मिउ किं गओ विडिं तउ वृद्धिई कां गउ ? मोटउं २०कां हूउ ? पहिलउं जन्मीतउई नही। जइ किवारई जणिउ तउ वधारिउ काई ? इति भाव । कांइ ? जइ मिथ्यात्त्वरत जाओ हूउ
१ जि. जणणीय. २ जि. मे. विडिं. ३ तेहजिनउ. ४ महिआ. . .