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[ ५८] इच्चाइ जओ नअइ, सवित्थरं तं सरेह सिद्धतं । सविसेसं सरह गुरु, जस्स पसाया भवे सो वि ॥४॥ (युग्मम्) गुरुसेवा चेव फुडं, आयारंगस्स पढमसुत्तम्मि। इय नाउं निअगुरुसे-वणम्मि कह सीअसि सकन ? ॥५॥ ता सोम ! इमं जाणिअ, गुरुणो आराहणं अइगरिहूं। इहपरलोअसिरीणं, कारणमिणमो विआण तुमं ॥६॥ रुट्ठस्स तिहुअणस्स वि, दुग्गइगमणं न होइ ते जीव ! । तुढे वि तिहुअणे लहसि, नेव कइआवि सुगइपहं ॥७॥ जइ ते रुट्टो अप्पा, तो तं दग्गइपहं धवं नेइ । अह तुट्ठो सो कहमवि, परमपयं पि हु सुहं नेइ (युग्मम् ॥८॥ जइ तुह गुणरागाओ, संथुणइ नमंसई इहं लोओ। नइ तुज्झणुरागाओ, कह तम्मि तुमं वहसि रागं ? ॥९॥ जइ वि न कीरइ रोसो, कह रागो तत्थ कीरए जीव ? । जो लेइ तुह गुणे पर-गुणिकबद्धायरो धिट्ठो ॥१०॥ जो गिन्हइ तुह दोसे, दुहजणए दोसगहणतल्लिच्छो । जह कुणसि नेव रागं, कह रोसो जुञ्जए तत्थ ? . ॥ ११ ॥ पिक्खसि नगे बलंतं, न पिच्छसे पायहिडओ मूढ !। जं सिक्खवसि परे, नेव कहवि कइआवि अप्पाणं ॥१२॥ का नरगणणा तेसिं १, वियक्खणा जे उ अन्नसिक्खाए । जे निअसिक्खादक्खा, नरगणणा तेसि पुरिसाणं ॥१३ ।।