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व्यवहारविधिप्रकरणम्
यो नरः कूटसद्भावं जानन्नपि वदेन वै।
सः कूटसाक्षिवद्दण्ड्यो नृपेण शतरौप्यकैः।।५९॥ जो व्यक्ति (वाद का) खोटापन या यथार्थस्वरूप जानते हुए भी तथ्य नहीं बताता है राजा द्वारा उसे नकली साक्षी की भाँति सौ रुपये से दण्डित किया जाना चाहिए।
(वृ०) उभयसाक्षिणामसत्यत्वे नृपेण किंकार्यमित्याह -
वादी और प्रतिवादी दोनों के साक्षियों के झूठे हो जाने पर राजा को क्या करना चाहिए, इसका कथन -
उभयोः साक्षिणोऽसत्याश्चैदन्यैर्गुणवत्तमैः। नृपेण निर्णयः कार्यः स्वाहूतैः साक्षिभिस्तदा॥६०॥ ब्राह्मणक्षत्रियविशः कृत्येऽसत्यं वदन्ति चेत्।
दण्डयित्वा प्रवास्याश्च न शूद्रे साक्ष्ययोग्यता॥६१॥ यदि दोनों पक्ष के साक्षी झूठे हों तो राजा द्वारा स्वयं अन्य बुलाये गये उत्तम गुण वाले साक्षियों के द्वारा (वाद का) निर्णय करना चाहिए। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य यदि साक्ष्य कार्य में असत्य बोलते हैं तो उन्हें दण्डित कर देश से निर्वासित कर देना चाहिए, शूद्र में साक्ष्य की योग्यता नहीं है।
(वृ०) अन्यसाक्षिणामभावे नृपेण किंकार्यमित्याह - अन्य साक्षियों के न होने पर राजा को क्या करना चाहिए -
उभानुमतिमादाय कार्यः साक्षी स्वधर्मभृत्।
एक एव हि शुद्धस्तु गुणवान् सत्यवाक् शमी॥६२॥ वादी तथा प्रतिवादी दोनों का अभिप्राय लेकर न्यायाधीश पवित्र, गुणवान, सत्यभाषी, शान्त और कर्त्तव्यनिष्ठ एक साक्षी करे।
(वृ०) ननु सीमावादादिविषयेषु भूपस्वस्थापितसाक्षिभिनिर्णयं कर्तुं शक्नोति अन्येषु च ऋणादानादिव्यवहारेषु साक्ष्यभावे लेखपत्राद्याभावे च कथं निर्णय कुर्यादित्याह
निश्चित रूप से सीमाविवाद आदि विषयों में राजा अपने स्थापित साक्षियों के द्वारा निर्णय करने में समर्थ है और दूसरे ऋणादान आदि व्यवहारों में साक्षी के अभाव में और पत्रादि के अभाव में कैसे निर्णय करे, यह बताया -
अर्थिप्रत्यर्थिनोः स्यातां साक्षिणौ चेन्न भूपतिः। कृत्यतत्त्वमजानानः शपथं तत्र कारयेत्॥६३॥