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भूपालादिगुणवर्णनम्
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स्वामिभक्तः प्रजाप्रेष्ठः प्रसन्ननयनाननः। दुर्दशनो द्विषां वीररसावेशे भयङ्करः॥८२॥ लञ्चादिलोभानाकृष्टः स्वामिकार्यैकसाधकः। सल्लक्षणः कृतज्ञश्च दयालुर्विनयी नयी॥८३॥ जेतव्यवर्षे निम्नोच्चजलशैलादिदुर्गवित्। नानाविषमदुर्गाणां भङ्गादानादिमर्मवित्॥८४॥ सन्धाने प्रतिभिन्नानां संहतानां च भेदने। उपायज्ञो प्रयासेन द्विषतैवं द्विषं जयेत्॥८५॥
- इति सेनापतिलक्षणानि॥ यवनादि लिपि में सिद्धहस्त, म्लेच्छ भाषा में निपुण, तत्पश्चात् म्लेच्छ आदि जातियों में साम-दाम आदि उपाय करने वाला, गम्भीरता के साथ विचारपूर्वक बोलनेवाला, अवसर के अनुकूल वचन बोलने वाला, गम्भीर और मधुर वाणी बोलने वाला, नीतिशास्त्र के अर्थ में प्रवीण, अपने कर्त्तव्य के विषय में सावधान, दूरदर्शी, समस्त शास्त्रों का ज्ञाता, युद्ध-विधि का ज्ञाता, चक्रव्यूह संरचना और अव्यूह (व्यूह-भेदन) में निपुण, मनोभाव प्रकट न करने वाले लोगों के भी छल और प्रामाणिकता को शीघ्रता से जानने वाला, प्रत्युत्पन्नमति वीर, सैकड़ों कार्यों में कुशल, स्वामिभक्त, प्रजा का अत्यन्त प्रिय, प्रसन्न नेत्र और मुखवाला, शत्रुओं में भय उत्पन्न करने वाली आकृति वाला, वीर रस के आवेश में भयङ्कर (प्रतीत होने वाला), रिश्वत आदि के लोभ की ओर आकृष्ट न होने वाला, अपने स्वामी के कार्य को सिद्ध करने में अद्वितीय, शुभ लक्षणों वाला, उपकार मानने वाला, दयालु, विनयशील, नीतिवान्, विजयी होने योग्य, क्षेत्र की नीची-ऊँची भूमि, जल, शैलादि और दुर्ग के विषय में जानने वाला, अनेक प्रकार के विषम दुर्गों को भङ्ग करने, ग्रहण करने आदि का रहस्य जानने वाला, शत्रुओं की सन्धि को तोड़ने के उपाय को जानने वाला और शत्रुओं को शत्रु के प्रयास से ही जीतनेवाला-इन गुणों से युक्त सेनापति योग्य है।
त्वया परबलावेशो बुध्या बाहुबलेन च। भञ्जनीयो विधेयो न विश्वासः कस्यचित् परम्॥८६॥ परस्य मण्डलं प्राप्य कार्या नानवधानता। अल्पेऽपि परसैन्ये च महान् कार्यः उपक्रमः॥८७॥ देशं कालं बलं पक्षं षड्गुण्यं शक्तिसङ्गमम्। विलोक्य भवता शत्रुरभियोज्यो न चान्यथा॥८८॥