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लघ्वर्हन्नीति
आगत्य च सभामध्ये स्थित्वा सिंहासने ततः। मन्त्रियुक्पार्थिवः सर्वराजचिह्नसमन्वितः॥७४॥ पश्येत्सभागतान्सर्वान् राज्यकर्माधिकारिणः। सेनापतितलारक्षप्रभृतींश्च चरानपि॥७५॥
- चतुर्भिःकलापकम्॥ प्रातःकालीन नित्य कर्म कर, स्नान कर, जिनालय जाकर, जिन की भक्ति कर, उच्च अधिकारियों एवं सेना से घिरा हुआ यदि गुरु हो तो उसके चरणों में नमनकर, उसके सम्मुख सावधानीपूर्वक दत्तचित्त हो बैठकर, देशना सुनकर और समस्त राजचिह्न से युक्त हो मन्त्रियों सहित सभा में आकर, तत्पश्चात् सिंहासन पर बैठकर सभा में आये हुए सेनापति, तलारक्ष आदि सभी राज्य कर्माधिकारियों और गुप्तचरों का भी निरीक्षण करे।
लक्षणानि स्वकर्माणि चैषां प्रस्तावयोगतः।
कथ्यन्तेऽत्र यथा प्रोक्तान्यागमे नीतिकोविदः॥७६॥ प्रस्तुत विषय के सन्दर्भ में आगमशास्त्र में और नीतिशास्त्र के ज्ञाताओं द्वारा इनके लक्षण और कर्म जिस प्रकार कहे गये हैं उनका यहाँ निरूपण किया जाता
(वृ०) तद्यथा -
सेनापतिर्भवेद्दक्षः यशोराशिर्महाबलः।
स्वभावतः सदातप्तस्तेजस्वी सात्त्विकः शुचिः॥७७॥ सेनापति दक्ष, (अनेक वीरतापूर्ण कार्य करने से) कीर्तिवान, महाबलशाली, सदा तीक्ष्ण स्वभाव वाला, तेजस्वी, सत्त्वगुण प्रधान और पवित्र हृदय वाला हो।
यवनादिलिपौ दक्षो म्लेच्छभाषाविशारदः। ततो म्लेच्छप्रभृतिषु साम दामाद्युपायकृत्॥७८॥ विचारपूर्वको भाषो यथावसरवाक्यविद्। गम्भीरमधुरालापी नीतिशास्त्रार्थकोविदः॥७९॥ जागरूको दीर्घदर्शी सर्वशास्त्रकृतश्रमः। ज्ञातयुद्धविधिश्चक्रव्यूहाव्यूहविशेषवित् ॥८ ॥ सावहित्थस्यापि यत्तूर्णं दम्भादम्भादिभाववित्।
प्रत्युत्पन्नमतिर्वीरोऽमूढः कार्यशतेष्वपि॥८१॥ १. समदामा० भ १, प १, प २।।