________________
लघ्वर्हन्नीति
उस (भगवान् ऋषभ) के पुत्र नवनिधान प्राप्त, नीति, धर्मादि के मर्म को जानने वाले भरतचक्रवर्ती ने पिता के वचन को हृदय में धारण कर (शासन किया)। उसने संसार के पालन के लिए आर्य वेद-चतुष्क की रचना की जिससे सम्पूर्ण प्रजा पुरुषार्थ की प्राप्ति में निपुण हो गयी।
तत्तु कालान्तरे भ्रष्टं जातं हिंसादिदूषितम्। मिथ्यात्विभिर्गृहीतं हि सुविध्यादिजिनान्तरे॥२०॥ परन्तु समय बीतने के साथ सुविधि आदि तीर्थङ्करों के काल में मिथ्यात्वियों (जैनेतरों) द्वारा अङ्गीकार करने से हिंसा आदि से दोषयुक्त होकर वह (शास्त्र) भ्रष्ट हो गया।
तदाउँस्तत्परित्यज्य पूर्वाचार्यैर्विनिर्मिताः। ग्रन्था अनेकशः सन्त्यधुनापि पृथिवीतले॥२१॥ तानाश्रित्य- जनो लोकव्यवहारे प्रवर्तते।
एतन्निदानमेतस्य जानीहि मगधाधिप।॥२२॥ इस लिए श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा उसे छोड़ कर, पूर्व के आचार्यों द्वारा रचित अनेक ग्रन्थ, जो पृथ्वीतल पर अब भी विद्यमान हैं, उनका आश्रय लेकर लोकव्यवहार का आचरण किया जाता है। हे मगधराज! यही (नीतिशास्त्र की उत्पत्ति का) कारण जानो।
इति प्रथमप्रश्नस्योत्तरं दत्वा जगत्प्रभुः।
प्रश्नान्तरसमाधानं यथा चक्रे तथोच्यते॥२३॥ इस प्रकार प्रथम प्रश्न का उत्तर देकर संसार के स्वामी (भगवान् महावीर) ने जिसप्रकार (राजा श्रेणिक के) अन्य प्रश्न का समाधान किया वह निरूपित किया जाता है(वृ०) तथाहि - उदाहरणार्थ
तत्रादावुपयोगित्वान्नृपाणां मन्त्रिणां गुणाः।
प्रकाश्य च तथा तेषामेव शिक्षाश्च काश्चन॥२४॥ उपयोगी होने के कारण ग्रन्थ के प्रारम्भ में राजा तथा मन्त्री के गुणों को सूचित कर उन (राजा तथा मन्त्री) की ही कुछ शिक्षाओं का (कथन करेंगे)।
अव्यङ्गो १ लक्षणैः पूर्णः २ रूपसम्पत्तिभृत्तनुः ३। अमदो ४ जगदोजस्वी ५ यशस्वी ६ च कृपापरः ७॥२५॥ कलासु कृतकर्मा च ८ शुद्धराजकुलोद्भवः ९। वृद्धानुगस्त्रिशक्तिश्च १०-११ प्रजारागी १२ प्रजागुरुः १३॥२६॥