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भूपालादिगुणवर्णनम्
गया, (राजनीति के) कितने भेद हैं, क्या स्वरूप है? इस सम्बन्ध में जानने की मुझे प्रबल इच्छा है।
तत्समाख्याहि भगवन् कृपां कृत्वा ममोपरि।
परार्थसाधने दक्षाः भवन्ति हि महाशयाः॥१२॥ हे भगवन्! मेरे ऊपर कृपा कर उसका सम्यक्प्रकार से प्ररूपण कीजिए। निश्चय ही महात्मा या उदारचेता दूसरों के प्रयोजन को सिद्ध करने में कुशल होते हैं।
ततो जगाद भगवान् शृणु भो मगधेश्वर!।
कालेऽस्मिन्नादिमो भूप ऋषभोऽभूज्जिनेश्वरः॥१३॥ तत्पश्चात् भगवान् बोले हे मगधराज! सुनो इस युग में आदि जिनेश्वर भगवान् ऋषभदेव प्रथम राजा हुए।
स एव कल्पद्रुमफले क्षीणे कालप्रभावतः। भारतान् दुःखितान् दृष्ट्वा कलिछद्मपरायणान्॥१४॥ कारुण्याद्युग्मजातानां छित्वा धर्मं पुरातनम्। वर्णाश्रमविभागं वै तत्संस्कारविधिं पुनः॥१५॥ कृषिवाणिज्यशिल्पादिव्यवहारविधिं तथा। नीतिमार्गं च भूपानां पुरपट्टनसंस्थितिम्॥१६॥ विद्याः सर्वाः क्रियाः सर्वाः ऐहिकामुष्मिकाअपि। प्रादुश्चकार भगवान् लोकानां हितकाम्यया॥१७॥
- चतुर्भिः कलापकम्। काल के प्रभाव से कल्पवृक्ष के फल के क्षीण हो जाने पर कलिकाल के कपट के वशीभूत भरत की प्रजा को दुःखी देखकर करुणावश युगलियों (युग्म रूप में उत्पन्न) के पुरातन धर्म का भेदन कर संस्कारविधि सहित वर्ण और आश्रम (दो प्रकार) के विभाग तथा कृषि, वाणिज्य, शिल्प आदि, व्यवहार विधि तथा राजाओं का नीति मार्ग, पुर तथा नगरों की व्यवस्था, लौकिक-पारलौकिक सभी विद्यायें, सभी क्रियायें, भगवान् (ऋषभदेव) ने लोगों के हित की कामना के लिए प्रवर्तित किया।
तत्पुत्रो भरतश्चक्रे निधाय हृदि तद्वचः। निधाननवकप्राप्तनीतिधर्मादिमर्मवित् ॥१८॥ आर्यवेदचतुष्कं हि जगत्स्थित्यै चकार सः। पुरुषार्थार्जने दक्षाः यतः स्युनिखिलाः प्रजाः॥१९॥ युग्मम्॥ .