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तृतीय अधिकार
३.१२
वाक्पारुष्यप्रकरणम्
श्रीमद्धर्मजिनं नत्वा सर्वकर्मविनाशकम् । यन्नामस्मृतिमात्रेण सफलाश्च मनोरथाः ॥ १ ॥
सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट करने वाले तीर्थङ्कर श्री धर्मनाथ, जिनके नाम के स्मरण मात्र से मनोकामनायें सफल हो जाती हैं, का वन्दन कर (वाणी की कर्कशता का कथन करता हूँ) ।
( वृ०) पूर्वप्रकरणेsस्वामिविक्रयो वर्णितस्तत्र वाक्पारुष्यं भवति इति तद्वर्णनमत्र प्रतिपाद्यते
पूर्व प्रकरण में स्वामी की आज्ञा के विना वस्तु-विक्रय का वर्णन किया गया, उसमें वचन की कठोरता होती है उसका वर्णन यहाँ प्रतिपादित किया जाता है येनोपयोगो जीवस्य शुद्धमार्गात्प्रणश्यति । वाक्पारुष्यमिति प्रोक्तं तदहं वच्मि किञ्चन ॥ २ ॥
जिस (कर्कश वाणी) के प्रयोग से प्राणी का शुद्ध मार्ग नष्ट हो जाता है उसे वाक्पारुष्य कहा गया है उसके विषय में किञ्चित् कथन करता हूँ।
प्राणिपीडानिदानं यल्लोकेऽप्रीतिकरं घनम् । सद्भिस्तत्प्राणनाशेऽपि न वाच्यं परुषं वचः ॥ ३ ॥
जो (कर्कश वाणी) संसार में अत्यन्त अरुचिकर और प्राणियों की पीड़ा का कारणभूत है, प्राण सङ्कट में होने पर भी सज्जनों द्वारा कर्कश वाणी नहीं बोलनी चाहिए।
वाचा सत्यापि या लोके जीवानां दुःखदायिका ।
सा ग्राह्यते न केनापि वनवासितपस्विना ॥ ४ ॥
सत्य होते हुए भी जो वाणी संसार में प्राणियों को दुःख देने वाली है वह