________________
तृतीय अधिकार
३.७ वेतनादानस्वरूपम्
नत्वा श्रीशीतलं देवं संसाराम्बुधितारकम्।
वेतनादान वृत्तान्तो वर्ण्यतेऽत्र समासतः॥१॥ संसार रूपी समुद्र को पार कराने वाले तीर्थङ्कर श्री शीतलनाथ का वन्दन कर यहाँ वेतनादान का स्वरूप संक्षेप में वर्णित किया जाता है।
(वृ०) पूर्वप्रकरणे सीमाविवाद उक्तस्तत्र भृत्या अप्येक्षिता भवन्ति इत्यत्र तवर्णना तद्वेतनादियुतोच्यते। तत्रादौ सेवकभेदानाह -
पूर्व प्रकरण में सीमा-विवाद का वर्णन किया गया उसमें भृत्यों की भी आवश्यकता पड़ती है अतः इस प्रकरण में उनका तथा उनके वेतनादि का स्वरूप वर्णित किया जाता है। प्रारम्भ में सेवक के भेदों का कथन -
सेवकः पञ्चधा प्रोक्तः शिष्यान्तेवासिभृत्यकाः। अधिकर्मकरास्तुर्याः स्मृता दासास्तु पञ्चमाः॥२॥ चत्वारः प्रथमे तत्र शुभकर्मकराः स्मृताः।
पञ्चमो दासको ह्यत्र सर्वकर्मकरो भवेत्॥३॥ सेवक पाँच प्रकार का कहा गया है – १. शिष्य, २. अन्तेवासी, ३. भृत्य, ४. चौथा अधिकर्मकर और ५. पाँचवां दास। उन (पाँचों) में प्रथम चार शुभ काम करने वाले कहे गये हैं। निश्चित रूप से पाँचवां दास सभी (शुभ-अशुभ) कार्य करने वाले होते हैं।
(वृ०) तत्र विद्याध्ययनतत्परः शिष्यः १। . ... विद्याध्ययन में तल्लीन शिष्य है।
शिल्पविद्यार्थी अन्तेवासी २।
१.
०कृत भ १॥