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दायभागप्रकरणम्
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एतेऽष्टावपि भेदा अन्यतीर्थीदायादाः पिण्डदाचोक्ता जैनशास्त्र जारजादिदोषगर्भितत्वेन न दायादाश्चेति।
(ऊपर गिनाये गये) ये आठ भेद अन्य मत वालों के द्वारा सम्पत्ति के अधिकारी और पितरों को पिण्ड देने वाले कहे गये हैं। जैन शास्त्र में (जार अर्थात् उपपति से उत्पन्न होने से) जारजादि दोष से युक्त होने के कारण दाय के अधिकारी नहीं गिने जाते हैं।
(वृ०) ननु स्वामिमरणानन्तरं तद्धनस्वामित्वं केन क्रमेण स्यादित्याहस्वामी के मरने के पश्चात् उसके धन का स्वामित्व किस क्रम से हो, इसका
कथन
पत्नी पुत्रश्च भ्रातृव्यः सपिण्डश्च दुहितृजः। बन्धुजो गोत्रजश्च स्वस्वामी स्यादुत्तरोत्तरम्॥७३॥ तदभावे च ज्ञातियैस्तदभावे महीभुजा।
तद्धनं सफलं कार्यं धर्ममार्गे प्रदाय च॥७४॥ (स्वामी की मृत्यु के पश्चात्) उसकी सम्पत्ति के स्वामी उत्तरोत्तर उसकी पत्नी, पुत्र, भतीजा, सपिण्ड - पितरों को पिण्ड देने वाला, दौहित्र, निकट सम्बन्धी और सगोत्रीय होगें। सगोत्रीय के न होने पर जातीय और उसके न होने पर राजा धर्म मार्ग में उसके धन को प्रदान कर उसे सफल बनाये।
(वृ०) मृतभर्तृद्रव्यस्य सर्वस्य पूर्वं स्त्री स्वामिनी, मरे हुए पति के समस्त द्रव्य की स्वामिनी पहले पत्नी, तदभावे पुत्रः, उस (पत्नी) के अभाव में पुत्र, तदभावे भ्रातृजः, उस (पुत्र) के अभाव में भतीजा, तदभावे सपिण्डः आसप्तमपुरुषवंश्यः,
उस (भतीजे) के अभाव में सपिण्ड - समान पितरों को पिण्ड देने वाला सात पीढ़ी तक के वंशज,
तदभावे दौहितः, उस (सपिण्ड) के अभाव में दौहित्र-पुत्री का पुत्र, तदभावे बन्धुजः आचतुर्दशपुरुषवंश्यः,