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लघ्वर्हन्नीति
'धन दो प्रकार का है - सप्रतिबन्धक और अप्रतिबन्धक। इसमें चाचा, भतीजा
आदि के पुत्र आदि पर प्रतिबन्धस्वरूप जो स्वामित्व है वह सप्रतिबन्धक है क्योंकि वह चाचा आदि के पुत्रों पर प्रतिबन्ध है।
दायो भवति द्रव्याणां तद्रव्यं द्विविधं स्मृतम्।
स्थावरं जङ्गमं चैव स्थितिमत् स्थावरं मतम्॥३॥ दाय-पैतृक सम्पत्ति का उत्तराधिकारियों में विभाजन- द्रव्यों का होता है, वह द्रव्य दो प्रकार का कहा गया है - अचल और चल, जो स्थिर है वह स्थावर कहा गया है।
गृहारामादिवस्तूनि स्थावराणि भवन्ति च।
जङ्गमं स्वर्णरौप्यादि यत्प्रयोगेण गच्छति॥४॥ भवन, उपवन आदि वस्तुएं स्थावर होती हैं और स्वर्ण, चाँदी आदि जो प्रयोग के कारण (अन्यत्र) जाता है चल है।
न विभाज्यं न विक्रेयं स्थावरं च कदापि हि।
प्रतिष्ठाजनकं लोके आपदाकालमन्तरा॥५॥ निश्चित रूप से लोक में प्रतिष्ठा उत्पन्न करने वाले स्थावर द्रव्य का आपत्तिकाल के बिना न तो कभी भी विभाजन करना चाहिए और न विक्रय करना चाहिए।
सर्वेषां द्रव्यजातानां पिता स्वामी निगद्यते।
स्थावरस्य तु सर्वस्य न पिता न पितामहः॥६॥ पिता सभी धनों का स्वामी कहा जाता है परन्तु समस्त स्थावर सम्पत्ति का न पिता स्वामी होता है न पितामह।
जीवत्पितामहे तातो दातुं नो स्थावरक्षमः।
तथा पुत्रस्य सद्भावे पितामहमृतावपि॥७॥ पितामह के जीवित होने पर स्थावर सम्पत्ति को देने (विक्रय) करने में पिता सक्षम नहीं है। पुत्र के रहने पर पितामह की मृत्यु हो जाने पर भी (पिता स्थावर सम्पत्ति का विक्रय करने का अधिकारी नहीं है)।
(वृ०) अत्र दातुमिति विक्रयस्याप्युपलक्षणम्। उपरोक्त श्लोक में वर्णित ‘दातुं' शब्द विक्रय का भी उपलक्षण है।
पिता स्वीयार्जितं द्रव्यं स्थावरं द्विपदं तथा।
दातुं शक्तो न विक्रेतुं गर्भस्थेऽपि स्तनन्धये ॥८॥ १. सतनन्धये भ १, भ २, प २।।