________________
देयविधिप्रकरणम्
तथा पुत्रपौत्राद्यन्वये सति सर्वस्वं न देयं किन्तु तद्भरण पोषणावशिष्टं देयमित्यर्थः ।
उस प्रकार वंश में पुत्र-पौत्र आदि वंश के होने पर सम्पूर्ण धन दान में नहीं देना चाहिए किन्तु उसके भरण-पोषण से अवशिष्ट धन दान में देना चाहिए।
तद्वृत्तिकल्पनाया आवश्यकत्वात्।
कुटुम्ब की आजीविका की कल्पना से (धन) आवश्यक होने के कारण। तथा चोक्तं
और कहा गया है
-
१.
८३
मातापितरौ वृद्धौ पुत्रो बालः प्रतिव्रता पत्नी ।
एते सर्वे पोष्याः नित्यं यत्नेन निश्चयतः॥१२॥
वृद्ध माता-पिता, शिशु, पुत्र, पतिव्रता पत्नी ये सभी निश्चित रूप से सदा यत्नपूर्वक पालन योग्य हैं।
अथ देयमाह
इसके बाद देय का कथनदेयं तदेव विज्ञेयं यत्रात्मीयविरोधो न
यस्यापहरणं नहि।
दत्तवत्सप्तभेदयुक्॥१३॥
यस्मै प्रतिश्रुतं यच्च तत्तस्मै देयमेव च । धर्मार्थं यदि सो धर्मात्प्रच्युतो नहि जायते ॥ १४॥ प्रतिग्रहो ह्यदेयस्य सप्रकाशो विशेषतः । स्थावरस्य तथा वादी यथा वैफल्यमश्नुते ॥ १५ ॥ भाव्युपाध्याधिदानप्रतिग्रहक्षेपविक्रयाः
1
कृता यस्य तदन्ते तत्सर्वं च विनिवर्तयेत्॥१६॥
देय दान उसी को जानना चाहिये जिसको पुनः वापस नहीं लिया जा सके, जिस धन को देने में कुटुम्बियों से विरोध न हो यह दान देने की विधि से सात प्रकार का है। जो वस्तु जिसको धर्मार्थ देने के लिये कहा था यदि वह व्यक्ति धर्म से च्युत न हो तो वह उसे देनी चाहिये । अदेय वस्तु यदि ग्रहण करे तो प्रकट रूप में ग्रहण करे विशेषतः यदि वह अचल सम्पत्ति हो तो विशेष रूप से प्रकट में ग्रहण करे जिससे (उस सम्पत्ति के विषय में विवाद की स्थिति में) वादी - अभियोगी
नित्ययत्नेन भ १, भ २, प २ ॥