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सम्यक्त्वविषयभूतस्य जीवतत्त्वस्य प्ररूपणा
उक्तं सोपक्रमद्वारम्, तदभिधानाच्च संसारिणो जीवाः । सांप्रतं मुक्तानभिधित्सुराह - मुत्ता अगभेया तित्थ - तित्थयर - तदियरा चेव ।
सय- पत्तेयविबुद्धा बुहबोहिय सन्नगिहिलिंगे ॥७६॥
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मुक्ताश्च सिद्धाः, ते चानेकभेदा अनेकप्रकाराः तीर्थंतीर्थंकरतदितरे चेति, अनेन सूचनासूत्रमिति कृत्वा तीर्थसिद्धा अतीर्थसिद्धास्तीर्थंकर सिद्धा अतीर्थकर सिद्धाश्व गृह्यन्ते । तत्र तीर्थे सिद्धास्तीर्थं सिद्धाः । तोथं पुनश्चातुर्वर्णः श्रमण संघः प्रथमगणधरो वा । तथा चोक्तं- तित्थं भंते तित्थं तित्थगरे तित्थं गोयमा अरहं ताव नियमा तित्थंकरे तित्थं पुण चाउव्वन्नो समण संघो पढमगणधरो वा इत्यादि । ततश्च तस्मिन्नुत्पन्ने ये सिद्धास्ते तीर्थसिद्धाः । अतीर्थे सिद्धा अतीथंसिद्धास्तीर्थान्तरसिद्धा इत्यर्थः । श्रूयते च - जिणंतरे साहुवोच्छेउ त्ति । तत्रापि जातिस्मरणादिना अवाप्तापवर्गमार्गाः सिध्यन्ति एवम् मरुदेवीप्रभृतयो वा अतीर्थसिद्धास्तदा तीर्थस्यानुत्पन्नत्वात् । अतीर्थंकरसिद्धा अन्ये सामान्यकेवलिनः । स्वयंप्रत्येकबुद्धा इत्यनेन स्वयंबुद्धसिद्धाः प्रत्येक बुद्धसिद्धाश्च गृह्यन्ते । तत्र स्वयं बुद्ध सिद्धाः स्वयं बुद्धाः सन्तो ये सिद्धाः । प्रत्येकबुद्धसिद्धाः प्रत्येकबुद्धासन्तो ये सिद्धा इति । अथ स्वयं बुद्ध प्रत्येकबुद्धयोः कः प्रतिविशेष इति । उच्यते - बोध्युपधिश्रुतलिङ्गकृतो विशेषः । तथाहि - स्वयं बुद्धा बोह्यप्रत्ययमन्तरेणैव बुध्यन्ते, प्रत्येकबुद्धास्तु न
इस प्रकार उपर्युक्त पांच द्वारोंमें संसारी जीवोंकी प्ररूपणा करके अब मुक्त जीवोंका निरूपण किया जाता है
मुक्त जीव अनेक प्रकारके हैं-तोर्थसिद्ध, तीर्थंकरसिद्ध, तदितरसिद्ध - अतीर्थसिद्ध व अतीर्थकर सिद्ध, स्वयंबुद्धसिद्ध, प्रत्येकबुद्ध सिद्ध, बुद्धबोधितसिद्ध, स्वलिंगसिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध और गृहिलिंग सिद्ध ।
विवेचन - जो जीव आठ प्रकारके कर्मरूप बन्धन से छूट चुके हैं वे मुक्त कहलाते हैं । यह मुक्त जीवोंका सामान्य लक्षण है, इस सामान्य स्वरूपको अपेक्षा उनमें परस्पर कुछ भेद नहीं है । पर सिद्धि के अन्य अन्य कारणोंकी अपेक्षा उनमें कुछ भेद भी है। वह इस प्रकारसे - (१) तीर्थं सिद्ध - जो किसी तीर्थकरके तीर्थ में सिद्ध हुए हैं-आठ कर्मोंसे निर्मुक्त हुए हैं - वे तीर्थसिद्ध कहलाते हैं । तीर्थनाम चातुर्वणं श्रमण संघ अथवा प्रथम गणधरका है । इस प्रकारके तीर्थके उत्पन्न होनेपर जो सिद्ध हुए हैं उन्हें तीर्थसिद्ध कहा जाता है । (२) अतीर्थसिद्धजो अतीर्थ में, तीर्थके अन्तराल में सिद्ध हुए हैं वे अतोर्थसिद्ध कहलाते हैं । आगम में भो सुना जाता है कि जिनोंके अन्तराल में साधुओंका व्युच्छेद - उनकी परम्पराका अभाव - हुआ है । इस प्रकारके अतोर्थमें जो जातिस्मरण आदिके आश्रयसे मोक्षमार्गको पाकर सिद्ध होते हैं उन्हें, अथवा मरुदेवो आदिके समान जो तोर्थके उत्पन्न होनेके पूर्व हो मुक्तिको प्राप्त हुए हैं उन्हें अतीर्थसिद्ध कहा जाता है । (३) तीर्थकर सिद्ध - तोर्थ कर सिद्ध तोर्थंकर ही हुआ करते हैं । (४) अतीर्थंकरसिद्ध - तीर्थंकर से भिन्न जो अन्य सामान्य केवली मुक्तिको प्राप्त हुए हैं वे अतीर्थकरसिद्ध कहलाते हैं । (५) स्वयं बुद्ध सिद्ध - जो स्वयं ही प्रबोधको प्राप्त होकर मुक्तिको प्राप्त होते हैं उन्हें स्वयं बुद्धसिद्ध कहा जाता है । (६) प्रत्येकबुद्ध सिद्ध - प्रत्येक बुद्ध होकर – एक अपनी आत्माके आश्रयस - जो सिद्ध होते हैं वे प्रत्येकबुद्धसिद्ध कहलाते हैं । यहाँ शंका सकती है कि इस प्रकारका लक्षण करने पर स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्धमें क्या विशेषता रहेगी ? इसके
१. अ अतोऽग्रे 'तथाहि-- स्वयं बुद्धा' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । २. अ बुद्धा न बाह्य । ३. अ मंतरेणाव ।