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श्रावकप्रज्ञप्तिः
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देवा नाराचैते सामान्येनैव । असङ्खधेयवर्षायुषश्च तिर्यङ्मनुष्या एतेन सङ्खयेय. वर्षायुषां व्यवच्छेदः । उत्तमपुरुषाश्चक्रवर्त्यादयो गृह्यन्ते । चरमशरीराश्चाविशेषेणैव तीर्थकरादयः । निरुपक्रमा इत्येते निरुपक्रमायुष एव अकालमरणरहिता इति ॥७४॥
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सेसा संसारत्था भइया सोवक्कमा व इयरे वा । सोवक्कम-निरुवक्कमभेओ भणिओ समासेणं ॥ ७५ ॥
शेषाः संसारस्था अनन्तरो दितव्यतिरिक्ताः संख्येयवर्षायुष अनुत्तमपुरुषा अचरमशरीराश्च । च एते भाज्या विकल्पनीयाः । कथम् ? सोपक्रमा वा इतरे वा कदाचित् सोपक्रमाः कदाचिन्निरुपक्रमा उभयमप्येतेषु संभवतीति सोपक्रम-निरुपक्रमभेदो भणितः । समासेन संक्षेपेण, न तु कर्मभूमिजादिविभागविस्तरेणेति ॥७५॥
विवेचन - आयुके विघातक विष, अग्नि व शस्त्र आदिरूप कारणकलापका नाम उपक्रम है। इस उपक्रमसे जो जीवरहित होते हैं उन्हें निरूपक्रमायुष्क कहा जाता है । वैसे कारणकलापसे भी उनका कभी अकालमें मरण सम्भव नहीं है । गाथा में निर्दिष्ट देव आदि इसी प्रकार के जीव हैं, जिनका कभी अकाल में मरण सम्भव नहीं है । जम्बूद्वीप, धातकोखण्ड और पुष्करार्धद्वीप इन अढ़ाई द्वीपों में स्थित पांच देवकुरु, पाँच उत्तरकुरु, लवण और कालोद समुद्रों में अवस्थित rator आदि मनुष्योंके निवासस्थानभूत अन्तरद्वीप, पांच हैमवत, पाँच हरिवर्ष, पांच रम्यक और पांच हैरण्यवत इन अकर्मभूमियों में उत्पन्न होनेवाले, मनुष्य व तिर्यंच, अढाई द्वीपोंके आगे असंख्यात द्वीप समुद्रों में अवस्थित तियंच तथा पांच भरत और पांच ऐरावत रूप कर्मभूमियोंके भीतर भी प्रथम, द्वितीय और तृतीय कालवर्ती मनुष्य व तिच ये सब असंख्यात वर्षकी आयुवाले होते हैं जो नारकी ओर देवोंके समान कभी अकालमें मरणको प्राप्त नहीं होते । चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव ये उत्तम पुरुष माने जाते हैं । चरम शरीर से अभिप्राय उस अन्तिम शरीर से उसी भव में मुक्तिको प्राप्त कर लेनेवाले जीवोंका है। चरमशरीरी उन्हें इसलिए कहा जाता है कि अब आगे उन्हें अन्य शरीर नहीं धारण करना पड़ेगा, यही उनका अन्तिम शरीर है जिससे वे मुक्तिको प्राप्त कर लेनेवाले हैं। टीकामें चरमशरीरियों में सामान्यसे तीर्थंकर आदिकोंको ग्रहण किया गया है । तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ( २-५२ ) में तीर्थंकरोंको उत्तम पुरुषों में सम्मिलित किया गया है । साथ ही वहाँ चरमशरीरियों को सोपक्रमायु और निरुपक्रमायु दानों कहा गया है, जब कि प्रकृत गाथा में उत्तम पुरुष और चरमशरोरी दोनोंको निरुपक्रम ही कहा गया है । यह गाथा मूल तत्वार्थाधिगमसूत्रका अनुसरण करनेवाली प्रतीत होती है ||७४ ||
आगे उपर्युक्त देवादिकोंके अतिरिक्त शेष सब संसारी जीवों में दोनों प्रकारके होते हैं, इसे स्पष्ट किया जाता है
उपर्युक्त देवादिकोंसे शेष रहे संसारी जीव - संख्यात वर्षकी आयुवाले ( कर्मभूमिज ) मनुष्य व तिर्यंच, अनुत्तम पुरुष तथा अचरम शरीरी ये- सोपक्रम और निरुपक्रम दोनों में विकल्पनीय हैं - वे कदाचित् सोपक्रम ( अकालमरणवाले ) और कदाचित् निरुपक्रम भी होते हैं । इस प्रकार संक्षेप में यहां सोपक्रम और निरुपक्रमका भेद कहा गया है ॥ ७५ ॥
१. अ कर्म्मभूनुजादि ।