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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[४२संसारस्तु प्रतिसमयबन्धकसत्त्वसंसृतिरूपः प्रतीत एव । एवमागमात्संसाराच्चन तथानन्तानां ग्रहणमेव भवति यथा बध्यमानकर्मपुद्गलाभावाद् बन्धाभाव एवेति ॥४१॥ एवं पराभिप्रायमाशङ्कयाह
आगम मुक्खाउ ण किं विसेसविसयत्तणेण सुत्तस्स ।
तं जाविह संपत्ती न घडइ तम्हा अदोसो उ ॥४२॥ आगममोक्षात् कि न विशेषविषयत्वेन सूत्रस्य 'पल्ले' इत्यादिलक्षणस्य । तं ग्रन्थि यावविह विचारे संप्राप्तिन घटते। द्वौ प्रतिषेधौ प्रकृतमथं गमयत इति कृत्वा घटत एव । तस्माददोषस्तु यस्मादेवं तस्मादेष दोष एव न भवति य उक्तस्तं यावदिह संप्राप्तिन युज्यते इत्यादि । तत्रागमस्तावत् “सम्मत्तंमि उ लद्धे" इत्यादि । मोक्षस्तु प्रकृष्टगुणानुष्ठानपूर्वकः प्रसिद्ध एव । अतो अथवा एक प्रकार ( मात्र वेदनीय ) के कर्मका बन्धक है; इत्यादि । रहा संसार सो वह प्रतिसमय बन्ध व सत्त्वरूप प्रतीत ही है। इस प्रकार जब उक्त आगम और संसारसे अनन्त कर्म पुद्गलोंका ग्रहण ही सम्भव नहीं है तब भला उन बध्यमान कर्मपुद्गलोंका अभाव कैसे हो सकता है, जिससे प्रसंग प्राप्त उस बन्धके अभावका निराकरण किया जा सके। इस प्रकार उस दोषके बने रहनेसे उपर्युक्त आगमका यही अभिप्राय संगत माना जायेगा कि सभी असंयत जीव बहुतर कर्मका बन्ध नहीं करते, किन्तु असंयत मिथ्यादृष्टि हो, और वह भी बहुलतासे, बहुतर कर्मका बन्ध करता है । इस प्रकार पूर्वोक्त कर्मस्थितिकी हानि निर्बाध सिद्ध होती है ॥४॥
इस प्रकार शंकाके रूप में वादीके अभिप्रायको प्रकट करके आगे उसका प्रतिवाद किया जाता है
पूर्वोक्त आगम (३५-३७) का विशेष विषय होनेके कारण आगम और मोक्षसे उस ग्रन्थि पर्यन्त इस विचार कोटि में क्या उसको प्राप्ति घटित नहीं होती है ? अवश्य घटित होती है। इस कारण उसको प्राप्तिमें जो दोष दिया गया था वह चरितार्थ नहीं होता।
विवेचन-पूर्वमें (३४) वादोने कहा था कि ग्रन्थि पर्यन्त विचार किये जानेके प्रसंगमें कर्मको पूर्वोक्त हानिके साथ अपूर्वकरण परिणामके द्वारा उस ग्रन्थिके भेदे जानेपर सम्यक्त्वका लाभ होता है, यह जो कहा गया है वह योग्य नहीं है, क्योंकि वैसा माननेपर आगम (३५-३७) से विरोध होनेवाला है। इस प्रकार वादोके द्वारा प्रदर्शित उस आगम विरोधका निरसन करते हए यहां यह कहा गया है कि पूर्वोक्त आगममें जो प्रचरतर कर्मबन्धका निर्देश किया वह सामान्यसे कहा गया है। विशेष रूपमें उसका यही अभिप्राय है कि असंयत मिथ्यादृष्टि ही उक्त प्रकारसे प्रचुरतर कर्मका बन्धक है और वह भी बहुलतासे ( अधिकांशमें ) है, न कि नियमतः । अतएव आगमसे जो विरोध दिखलाया गया है वह उचित नहीं है। इसके विपरीत आगम (३८९-९१) से ही यह सिद्ध है कि गुणोंके सामर्थ्यसे बन्धके ह्रास और पूर्वबद्ध कर्मके क्षयसे मोक्ष होता है। इस प्रकार सम्यक्त्वका लोभ हो जानेपर पल्योपम पृथक्त्व कालमें श्रावक भी हो जाता है, इत्यादि । मोक्ष प्रकृष्ट गुणोंके अनुष्ठान पूर्वक होता है, यह भी प्रमाणसिद्ध है। इससे यही स्वीकार करना चाहिए कि उक्त आगमका विशेष विषय रहा है, जिसका कि पूर्वमें निर्देश किया जा चुका है । यदि ऐसा न हो तो आगे (३७) उसी आगममें जो यह भी कहा गया १. अ बंधकर्मत्वसंसृतिरूपः प्रतीत एवमात्संसाराच्च। २. अ विसयत्तेणेण । ३. अ आदोसो । ४. म संप्राप्तिमं घटते ।